भारतीय संगीत के मुख्यरूप से तीन प्रकार देखनें सुनने में आते है। जिससे पहला शास्त्रीय-संगीत दूसरा उप-शास्त्रीय संगीत जिसे सुगम या सरल संगीत भी कहा जाता है और तीसरा लोक-संगीत। इन तीनों संगीत की विधाओं पर कुछ प्रकाश डालना चाहुॅंगाः-
शास्त्रीय-संगीत या पक्का गाना वह है जो शास्त्रीय नियमों के अन्तर्गत आता है। इनमें ध्रुवपद, खयाल, ठुमरी, टप्पा, दादरा आदि को गिना जाता है। इसका प्रकार आता है सुगम या सरल संगीत इसमें भजन, गीत आदि आते है। अब तीसरा प्रकार है लोक-संगीत यह तीसरा प्रकार शास्त्र के अति कठोर नियम से सर्वथा स्वच्छंद है। किंतु यह (लोक-संगीत) संगीत बहुजन समाज की अंतःस्थली को संगीतामृत से सिंचित किये देती है। जो कि प्रत्येक देश के विद्वानों का विषय बनी हुई है। क्योंकि शास्त्रीय-संगीत का आधार ही लोक-संगीत है। यदि यह कहा जाय कि लोक-संगीत उस सुरसरि के समान है जिसका एक मात्र लक्ष्य लोक-कल्याण है। इस त्रिताप संतप्त मानस-भूमि को अपनी धुन एवं लोकवाणी से रससिक्त एवं आप्लावित कर उसे सरस एवं उर्वरा बनाना है। यदि लोक-संगीत के लिए यह कहा जाये कि प्रयोग में आते-आते जब कोई धुन इतनी रंजक, सुगेय तथा स्थायी बन जाती है, कि जन-सामान्य उसे सरलता पूर्वक अपने मानसिक आहार के रूप में अंगीकार कर सके तब वह लोक-संगीत का रूप ले लेती है। और ये लोक-संगीत की धुनें व इन धुनों की ताल जिसे हम लय कहते है। इस प्रकार समाई रहती है। जिस प्रकार हमारे शरीर में रक्त। हम यह कहें कि सम्पूर्ण सृष्टि नादात्मक व लयात्मक है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है।
जब शिशु का जन्म होता है तभी से नाद का भी जन्म उसके साथ होता ही है उसका प्रमाण है उस शिशु का रूदन। हमारें संतों का मनिषियों का, विद्वत्जनों का तो यहॉं तक मानना है कि केवल मानव मात्र ही नहीं बल्कि प्रकृति का सम्पूर्ण हिस्सा जिसमें चारों प्रकार के जीव (अण्डज, स्वेदज, उद्भिज, एवं जलज) पैदा होते है सभी नादात्मक व लयात्म्क है। सम्पूर्ण वनस्पति संगीतमय है। उसका उदाहरण यह है कि जब हवा चलती है तब आवाज आती हैं वह नाद ही तो है, किसी भी पेड़ कि डाली, पत्ते आदि का हिलना लय को दर्शाता है। किंतु यह सब नियमों में बंधा नहीं होता।
(1) प्यारेलाल श्रीमाल, शास्त्रीय एवं लोक-संगीत पर एक तुलनात्मक सृष्टि (निबंध संगीत, संकलक, लक्ष्मीनारायर्ण गर्ग, प्र.सं. 86 )
विद्वानों ने कहा है, कि ’’शास्त्रीय-संगीत का आधार ही लोक-संगीत‘‘ है तो शायद इन्हीं प्राकृतिक गतिविधियों को देखते हुये कहा है। जैसे- जैसे मनुष्य में विकास की पृवृŸिा बनती गयी वैसे-वैसे वह कुछ नियम व कायदे सोचने लगा, और एक सम्य समाज बना पाया। जिसे सुसंस्कृत समाज कहते है। धीरे-धीरे वह शास्त्रों के बारे में विचार करने लागा तो हमारे संगीत को भी शास्त्रीय नियमों में बॉंधने लगा जिसे कालांतर में शास्त्रीय-संगीत कहा जाने लाग, तो कहा जाये कि लोक के आधार पर ही शास्त्र बनें है। ऐसे ही संगीत का शास्त्र बना है।
लोक-संगीत के लिए कहा जा सकता है कि लोक-संगीत का हृदय इतना विशाल है ंकि वह किसी भी सरल व सुमधुर घ्वनी को आत्मसात करने से पीछे नहीं हटता। ये कहें कि लोक-संगीत प्रत्येक जन को व अपने- 22 समुदायों को उत्साह, उमंग और तम्नयता में सराबोर करते हुए गांवों व शहरों को एक सुत्र में बॉंधने की पुरजोर लोक विधा है तो सत प्रतिशत युक्तियुक्त है।
’’मतंगमुनि‘‘ के अनुसार अपनी- अपनी इच्छा से और अपनी-अपनी भाषा में अनुराग सहित गाने तथा अपने-अपने ढंग से बजाने, नाचने की परंपरा अनियंत्रित रूप से चलते रहने की पूर्ण संभावना हे। उसे जब भी नियंत्रित किया जायेगा तब वह उसका परिष्कृत रूप या कहें कि शास्त्रीय रूप तो धारण कर लेगी किंतु लोक-संगीत की स्वच्छंद परंपरा को भुलानें में या कम करने में असमर्थ ही रहेगी। इसलिए लोक-संगीत का प्रेरणा-स्त्रोत जन-मानस है। अतः उसका विकास और संचरण क्षेत्र अधिक विस्तृत है। 2
शास्त्रीय-संगीत का आधार ही लोक-संगीत है उसका वर्तमान कारण यह भी है, कि शास्त्रीय-संगीत के शिक्षण की विधि सरल है, किंतु लोक-संगीत की कठिन है। कारण-लोक संगीत में जो अल्हड़ता, उन्मŸाता व ग्रामीणता है वह इस लोक-संगीत का प्राण है। इसको पढ़ाना संगीत के प्राध्याकों के बूते का रोग नहीं है। यह तो उसी वातावरण में रहकर सीखा जा सकता है।3 अतः यह काह जाय कि लोेक-संगीत शास्त्रीय-संगीत का ही एक मात्र आधार नहीं है।, यह तो सम्पूर्ण जन-मानस, जातिगत ढॉंचे व सामाजिक एकता को बनायें रखने का भी एकमात्र आधार है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है।
लोक कला की महत्ता एवं उसकी उपादेयता के संबंध में हमारे प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू के ये उद्गार युक्तियुक्त हैं – ’’लोक कला में हमको अपने उस सांस्कृतिक वैभव को देखने का अवसर मिलता है, जिसने हमारे देश को एकता के सूत्र में बांधा है।‘‘ 4
(2) नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, भारतीय संदर्भ में लोक-संगीत, (निबंध संगीत, संकलक, लक्ष्मीनारायण गर्ग) पृ.सं. 80
(3) प्यारेलाल श्रीमाल, शास्त्रीय संगीत एवं लोक संगीत पर एक तुलनात्मक दृष्टि (निबंध संगीत, संकलक, लक्ष्मीनारायण गर्ग) पृ.सं. 89
(4) यारेलाल श्रीमाल, शास्त्रीय संगीत एवं लोक संगीत पर एक तुलनात्मक दृष्टि (निबंध संगीत, संकलक, लक्ष्मीनारायण गर्ग) पृ.सं. 90
डॉ. चिंतामणि उपाध्याय के शब्दों में- लोक गीतों में मानव हृदय के भाव सामान्य धरातल पर उतरकर आशा – निराशा, आकर्षण-विकर्षण हर्ष- विमर्ष, प्रणय एवं कलह आदि के रूप में व्यक्त हुए है। लोकगीतों की इस अभिव्यक्ति मंें हमें मानव जीवन की उस प्रांरभिक स्थ्तिि के दर्शन होते है।, जहॉं साधारण मनुष्य अपनी लालसा, उमंग, उल्लास, प्रेम एवं घृणा आदि भावों को प्रकट करने में समाज द्वारा मान्य शिष्टाचार के कृत्रिम बंधनों को स्वीकार नहीं करता। स्वच्छंद भावना और उसकी स्वच्छंद अभिव्यक्ति लोक-संगीत व लोक-गीतों का प्रथम लक्षण है। 5
हर्ष का विषय है कि कलाविदों, कुछेक सेठसाहुकारों, संगीत के रसिक जनों आदि का व वर्तमान में कैसेटस, सीडीज, विडियों केसेट्स आदि के द्वारा लोगो को पुनः इसकी और आमुख करने वाली कम्पनियॉं तथा सरकार की और से इस दिशा में पहल हुई है उससे लोक-संगीत के स्वर्णिम भविष्य का स्वपन साकार होने की आशा ही नहीं बल्कि इन प्रयासों को देखते हुए लगता है, कि जब तक सृष्टि रहेगी तब तक इस धरातल पर लोक-संगीत का परचम फहराता रहेगा।
(5) प्यारेलाल श्रीमाल, शास्त्रीय संगीत एवं लोक संगीत पर एक तुलनात्मक दृष्टि (निबंध संगीत, संकलक, लक्ष्मीनारायण गर्ग) पृ.सं. 89