अध्यात्मवादियों के मतानुसार जिस प्रकार ब्रह्म से पर सृष्टि की कल्पना असंभव है। इसी प्रकर प्रकृति और चराचर जगत के प्रत्येक तत्व एवं वस्तु के आंरतरिक अवयवों में सुक्ष्मातिसुक्ष्म, अक्षुण और अ अखंड धारा सदियों से वर्तमान तक प्रतिक्षण पल-पल समाहित और प्रवाहित है और अनंतकाल तक रहेगी। इस प्रकार संपूर्ण जगत ही अदृश्य रूप से संगीतमय है। संपूर्ण वायुमण्डल ही संगीत स्वरलहरियों से अदृष्ट अथक रूप तरंगित है। भर्तृहरि ने कहा है-
’’‘अनादिनिधनं ब्रह्मशब्दत्वायदक्षरम्‘
वितर्तते अर्थ भावेन प्रकिृय जगतायतः’’।।
अर्थात- शब्द रूपी ब्रह्म अनादि विनाश रहित और अक्षर है, अर्थात उसकी विवर्त प्रक्रिया ही जगत में भासित है। अतः सम्पूर्ण जगत को शब्द एवं राग द्वारा सदा-सर्वदा रसमय एवं बुद्धिमय बनाये रखना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है।
स्वतंत्रता पूर्व भारत में अनेक संस्कृतियों का क्रूर आधिपत्य रहा। इन संस्कृतियों के कारण हमारा धर्म, सभ्यता, साहित्य व संस्कृति अधिकाधिक प्रभावित हुए। ऐसे में हमारा संगीत भी अपनी मौलिकता से दूर होता गया और धर्म से भी दूर होता गया। उस अधंकार के समय में भारत के ही कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने विदेशियों से समझोता कर निजी लाभ उठाया उन्होेंने देश की गरिमा व संस्कृति से कोई सरोकर नहीं रखा। दुर्भाग्य से आज भी ऐसे अनेकों लोग थे जिन्होनें विदेशियों से समझोता कर निजी लाभ उठाया उन्होने देश की गरिमा व संस्कृति से कोई सरोकर नहीं रखा। दुर्भाग्य से आज भी ऐसे अनेकों लोग हमारे बीच में है जो केवल अपना ही हित चाहते हैं। यदि कहा जाये कि इस तरह की मानसिकता के लोगों ने स्वतंत्रता के बाद भी समाज व सरकार को दिशाहीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी। भला हो हमारे संतों का जिन्होनें लिखा कि-
’’सचिव, वैद्य, गुरू तीन ज्यों प्रिय बोलहिं भय आस।
राज, धर्म, तन तीन कर होइहि बेगहि नास।।‘‘
इस तरह के संतो ने हमारे समाज व देश को दर्पण दिखाया अन्यथा थे स्वार्थपरस्त लोग हमें फिर से दासता की और ले जाते।
भारतीय संगीत के सभी स्तरों में आज जैसी ठेकेदारी प्रथा नहीं थी। बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि जो संगीत मनुष्य के सामाजिक स्तर, धार्मिक स्तर व संस्कारिक स्तर को प्रबल बनाता था वही संगीत व्यक्ति को संस्करों से विमुख कर निम्न स्तर की और धकेलता जा रहा है। अर्थ प्रधान युग ने कलाकरों को भी सांगीतिक व्यापारी बना दिया है। अब यह कहावत झूंठी होती जा रही हैं, कि कलाकार तो ’’फकीर तबियत‘‘ का होता है। फकीर का मतलब है उदार दिल का होना दूसरा मतलब है जमानें में क्या हो रहा है। उसका कोई लेना – देना ही नहीं है। इसीलिए संगीत की स्थिति भी डांवाडोल ही है। आज की युवा पीढी संगीत को सीखना पसंद नहीं करती। यदि संगीत सीखना भी चाहे तो संगीत के महत्व नहीं सीखना चाहती। हॉं, कमाई कैसे की जाती है। इसीलिए अब के युवाओं को ईवेन्ट मैनेजमेन्ट की शिक्षा ज्यादा रूचिकर लगने लगी है। कारण की सभी को भौतिकवादिता ने अपने चंगुल में फंसा लिया है। आज का संगीतकार साुधवादी व आत्मसंतोषी नहीं रहना चाहता वह तो आज के समयानुसार बहुरूपिया बनकर संगीत के छद्मवेष में विश्वास करता है। अतः युवा पीढ़ी रैप और पॉप में माइकल जेक्शन बनना ज्यादा पसंद करती है। इस की वजह हमारे आदर्श मान जाने वाले कला साधक है। क्योंकि ये कला साधक भी अब मूलभूत आवश्यकताओं के अलावा भौतिक आवश्ययकताओं को बलवती समझते जा रहे हैं। जो कि भारतीय संगीत के विपरीत है।
जैसा कि देश पर अनेक धर्म संस्कृतियों का बोलवाला रहा तो भारतीय संगीत पनप नहीं पाया। जब राजपूत -काल वर्चस्व में रहा तब घरानों के विवाद ने संगीत को जकड़े रखा। कोई सीखना चाहे तो उसके लिए कठिन था। जब मुगल सभ्यता ने अपने कदम बढ़ाये तो चाटुकार संगीतज्ञ उनके गुणगान में लग गये। इन विद्यार्थियों कि वजह से संगीत मनोरंजन बनकर रहा गया। जब अकबर का शासन हुआ जब चैन का सांस मिला। सभी धर्मानुयाइनयों को अपना-अपना धर्म मानने की इच्छा पूर्ण हुई। उसका उदाहरण है अकबर के नव रत्नों में संगीत तानसेन भी।
समय ने फिर करवट बदली और सन् 1947 को भारत देश सभी परतंत्रता की बेड़ियों से स्वतंत्र हुआ। हमारी सभी कलाओं को भारत सरकार ने संरक्षण दिया व सभी कलावर्गों को उन्नत किया जहॉं तक संगीत का सवाल है तो प्रातः स्मरणीय भारतखण्डे जी व पुलुष्कर जी जैसे अनेक संगीत के विद्वानों ने संगीत को पुन जीवन दिया। उन्हीं में से जयपुर में गायन के श्री ब्रह्मनंद जी गोस्वामी व नृत्य के श्री बाबूलाल जी पाटनी भी हैं। आज संगीत के दो संगीत कला केन्द्र इन्हीं साधकों की मेहनत का फल है जिनकों संगीत कला संस्थान व जयपुर कथक केन्द्र के नाम से जाना जाता है।
विचारणीय प्रश्न है कि कलाओं को जिसमें संगीत कला भी है को शिक्षण से क्यों जोड़ा गया। इस प्रश्न का उत्तर कोई मेरे से पूछे तो मै। यह कहूॅंगा- जो भारतीय संगीत राजपूत काल से घरानों में जकड़ा रहा वही संगीत मुगल काल मं अनेक धुनों से घुलता-मिलता अपने अस्तित्व को बचानें में लगा रहा। अधिकतर कलाकार अपनी संगीत कला को सिखाना भी नहीं चाहते थे। इन सभी कारणों को जब प्रातः स्मरणीय भारखण्डे जी व पलुस्कर जी जैसे विद्वानों ने गहनतम सोचा तो माना कि जो कुछ बचा है उस संगीत कला को स्वरबद्ध करके बचाना चाहिए अन्यथा इन कलाकरों की संकुचित मानसिकता से पाठयक्रम से जोड़ दिया जाये तो इन कलाकारों को रोजगार मिल जायेगा व सभी वर्ग के रूचिकर संगीतानुरागियों को संगीत का ज्ञानार्जन प्राप्त होगा। यह हर्ष व विषय है कि संगीत (संगीत, वादन, नृत्य) को विद्यालय स्तर से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक पढ़ाया जा रहा है। जिसमें एम.ए., पी.एच.डी., एम.फिल. व डी.लिट. जैसी उपाधियॉं प्राप्त कर ऊॅंचे-ऊॅंचे पदों पर आसीन है। इसमें नया मोड़ तब आया जब इन अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे कलाकारों से संगीत का ज्ञान प्राप्त कर डिग्रीधारियों शिक्षकों ने इन्हें अपने अनुशासन में रखना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे संगीत का स्तर गिरता जा रहा है। आज का विद्यार्थी सोचना है मुझे कहॉं सीखना चाहिये। क्योंकि संगीत साधक से सीखने पर नौकरी नहीं मिलेगी व शिक्षण संस्था में सीखने से संगीत की असली बारिकियां नहीं मिलेगी।
जिस कला को स्वतंत्रता के बाद सभी वर्गों के लाभ हेतु शिक्षण संस्थाओं से जोड़ा था वह उदे्श्य पूरा नहीं हुआ। आज इन शिक्षण संस्थाओं ने कितने कलाकार देश की संगीत विद्या को मंच के द्वारा प्रदर्शन कर बचाये रखने को दिये है या कहें कितने संगीत के शास्त्रकार दियें है। यह विचारणीय प्रशन है। जिन विद्यालयों, महाविद्यालयों व विश्व-विद्यालयों को संगीत की शिक्षा देनें में जितना उच्चतर समझा था यदि संगीत के वर्तमान परिपेक्ष को देखा जाये तो यह कला इन संस्थाओं में निम्नतर होती जा रही है। इस पर गहनतम विचार किया तो पाया कि जो कला मंच के माध्यम से कलासाधक द्वारा जन-जन तक पहुंचती थी वह अब संगीत शिक्षकों के द्वारा स्कूल या विश्वविद्यालय तक सिमटकर रह गई। जो कला अनवरत साधना का फल है वो कला समयावधि में बांध दी गयी। धीरे-धीरे इन शिक्षण संस्थाओं में संगीत सीखाने-पढ़ाने वाले शिक्षकों ने अपने आप को विषयानुसार संगीतज्ञ बना लिया। कुछेक संगीत को समर्तित शिक्षकों को व्यवस्था बनाये रखने हेतु संगीत विभाग में उच्च पद से सुशोभित कर दिया गया तो उनकी साधना संगीत की न होकर दफ्तरी देखभाल की हो गयी। जो शिक्षक केवल कक्षाओं तक सीमित हो गये उन्होेने विषयानुसार रागों के आलाप बोल आलाप व तानें नियत कर दिये जो शुरू से लेकर अब तक चले आ रहे है। थोड़ा सा बदलाव विश्वविद्यालय में अवश्य आता है। जहॉं पर संगीत की स्वतंत्री शैली सिखाई जाती है, किंतु बोल, आलाप, ताने आदि में प्रध्यापक गण यह कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि बोलबनाब, आलाप व तानें स्वयं बनाओं। जब विद्यार्थी गाने लगता है तो टोक दिया जाता है, यह तो प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों जैसे बना रहे हो। विचारणीय है, जिन विद्यार्थियों को विद्यालय से लेकर महाविद्यालय तक संगीत शिक्षक के द्वारा अपने संगीत के शिक्षक के द्वारा अपने संगीत के रजिस्टर में लिखे हुए आलाप व तानें सिखाई गई थी वह विद्यार्थी तो वैसे ही गायेगा। जब पूर्व में विद्यार्थी को रचनात्मकता से दूर रखते हुए एक सीमा से बांध दिया गया तो वह वैसे आलाप व ताने बनायेगा, उसका दोष नहीं है। दोष उन संगीत शिक्षकों का है जो विद्यार्थी की इस कमी को दूर नहीं करते। साथ ही विद्यालयों, महाविद्यालयों में नियुक्त संगीत शिक्षकांें को भी अवगत नहीं करवाते कि संगीत विषयानुसारक्रम में आबद्ध होने के साथ-साथ रचनात्मकता से ओत-प्रोत है।
राजस्थान सरकार का भला हो कि संगीत की और ध्यान नहीं देते हुये संगीत में नियुक्यिां ही नहीं दे रही है अन्यथा अनेक डिग्रीधारी अपने संगीत में रजिस्टर में लिखे उन आलाप-तानों को बड़े जतन से रखे हुए ये इन्तजार कर रहे है, कि सरकार जब नौकरी देगी तब यह आलाप-तान का रजिस्टर काम आयेगा। हालांकि कुछेक संगीत को समर्पित शिक्षक संगीत को सामवेद भगवान की पूजा समझकर समाज को संगीत से जोड़ रहे हैं। और विद्यार्थियों को भी लाभ पहॅंुचा रहे हैं। साथ ही इन्हें यह चिन्ता लगी रहती है कि वर्तमान की स्थिति को देखते हुए संगीत की क्या दशा होगी। इन्हीं में अनेक संगीत शिक्षक ऐसे भी हैं जो सालभर में यदा-कदा कक्षाऐं लेकर पाठ्यक्रम की तैयारी करवा देतें हैं। विद्यार्थी को कितना समझ में आया इसकी चिंता नहीं रखते हुए केवल पगार की चिंता में लगे रहते हैं। इन्हीं सब कारणों से संगीत का महत्व कम होता जा रहा है। अब तो संगीत को इतना सरल समझ लिया गया है या कहें कि संगीत को इतना औचित्यहीन मानने लगे हैं कि किसी विद्यार्थी का प्रवेश चाहे गये विषय में नहीं हुआ तो उसे संगीत लेने की सलाह दी जाती है और यह भी विश्वास दिला दिया जाता है, कि इसमें कोई फैल (अनुउत्तीर्ण) नहीं होता केवल थ्योरी (सैद्धांतिक) पर थोड़ा ध्यान दे लेना। विचारणीय बिन्दु है, कि जो विषय सबसे कठिन होता था वह कितना सरल समझ लिया गया। यह कहने की शायद आवश्यकता नहीं है कि इसके जिम्मेदार कौन हैं। इससे भी ज्यादा बुरे दिन तो तब से आये जब से इन कलाओं को ऐसे अधिकारियों के अधीन कर दिया गया जिनका संगीत से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। ये अधिकारी जब संगीत के कार्यालयों में पदासीन कर दिये जाते है, ओर से अधिकारी संगीत विभाग में यदा-कदा दौरा करने निकलते हैं तो तानपुरा व सितार दोनों को ही एक समझते हैं और तो और परवावज, नाल व ढ़ोलक की छोटी-बड़ी ढ़ोलक कह कर सम्बोधित करते हैं। इन अधिकारियों का हौसला तब और अधिक बढ़ जाता है जब कोई चतुर कला साधक मनोविनोद करता हुआ एवं कुछ चाटुकार कलाकार इन अधिकारी महोदय से ये कहते है। कि साहब आप को तो तानपुरा और ढोलक के बारे में काफी समझ है। उस वक्त भी महाशय ये नहीं समझ पाते हैं कि ये दोनों तरह से कलाकार किस-किस भाव से सम्बोधित करते हुए क्या कहना चाह रहे हैं । ये भारतीय संगीत एवं संगीत के वास्तविक कला साधकों के साथ घोर अन्याय नहीं हैं तो क्या है।
उपरोक्त में लिखे गये वर्णन से कलाकारों के गुणावगुण का जिसमें उच्चकोटि के कला साधक व शिक्षण संस्थाओं से जुड़े संगीत शिक्षक शामिल है, से यह महसूस हुआ कि संगीत को पहले तो अनेक आंका्रताओं ने नहीं पनपने दिया, फिर संगीत को घरानेदार ईर्ष्या ने नहीं पनपने दिया और जब इन सबसे निजात मिली तो शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत संगीत शिक्षकों ने इसे भावानात्मक सम्प्रेषण व रागानूकूल रचनात्मकता से प्रायः पर ही रखा। जिससे संगीत का ह्वास हुआ।
अब यदि कहा जाये कि सरकार का संगीत के प्रति क्या नजरिया रहा है, तो पायेंगे कि सरकार ने कला को प्रोत्साहन देनें में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार तक कला अवार्ड देकर कला को अत्याधिक प्रोत्साहन दे रही है। जिनमें राजस्थान संगीत नाटक अकादमी से लेकर भारत रत्न तक के अवार्ड शामिल हैं। इसके बावजूद भी संगीत कला का पैमाना या कहें स्तर अधिक सराहनीय नहीं हो पा रहा। इसके पीछे क्या कारण उसको ढॅूढना सरकार का अत्यावश्यक कार्य है। निष्कर्षरूपेण यह कहना पड़ेगा कि राजस्थान के उच्च माध्यमिक विद्यालयों में गिनती के दो-चार विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में ही संगीत को पढ़ाया जाता है अन्य विद्यालयों में क्यों नहीं? जितने महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हैं उन सबमें व नये-नये महाविद्यालय, महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में जो संगीत शिक्षक नियुक्त थे उनके पदच्युत होने के बाद उन पदों पर नियुक्ति क्यों नही की जाती है? राज्य में अधिकतर संगीत कला केन्द्रों में संगीत को नहीं समझने वाले अधिकारी क्यों थोप दिये जाते है? विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों में जो संगीत शिक्षक होते हैं उनसे दोनों (प्रायोगित व सैद्धांतिक) काम लिये जाते है, जबकि प्रायोगि संगीत शिक्षक व सैद्धांतिक शास्त्र के शिक्षक अलग-अलग होने चाहिए ताकि विद्यार्थी या तो कलाकार बने या शास्त्रकार बने पर ऐसा नहीं हुआ। इस और ध्यान क्यों नहीं दिया जाता है? सरकार द्वारा कला साधकों को पुरस्कृत किया जाता है लेकिन वह उन्हीं को मिलता है जिनकी पहॅंुच संगीत कला संस्कृति को संभालने वाले अधिकारियों तक है। पहले ऐसा नहीं थ, अब रंग-ढंग दूसरा है। अब निजी, स्वार्थ, गपबाजी की राजनीति और जोड़-तोड़ की संस्कृति पर पुरस्कारों को तोला जा रहा है। इन सब कारणों से इन पुरस्कारों की इज्जत बढ़ी नहीं घटी जरूर है। ऐसा क्यों?
इतिहासकारों, शास्त्रकारों व विचारकों का मानना है कि संगीत की अलौकिक विधा अनेक संस्कृतियों के छापे घने बादलों को चीरते हुए प्रकाश-पुंज के रूप में हमें अलौकित करती रही है। यदि यह कहा जाये कि सरकार द्वारा उन सभी चैनलों पर प्रतिबन्ध लगाया जाये जो हमारे सामने फूहड़ संगीत को परोसते है। साथ ही ऐसे संगीत को स्वीकृति दे जो समाज को सही दिशा प्रदान करता है। ऐसा नहीं हुआ तो वे दिन दूर नहीं जिसमें ’’मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए‘‘ ’’शीला की जवानी‘‘ या दिल्ली शहर में म्हारों घाघरों जो घूम्यों आदि गाने ही असली संगीत समझा जायेगा। कलांतर में शेष बची हुई संगीत की थाती को बचाये रखना सभी कलाकरों, कला प्रेमियों, समाज एवं सरकार का उŸारदायित्व है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमारे पास संगीत व साहित्य की जगह अभद्रता रह जायेगी। यह बताने कि आवश्यकता नहीं होगी की इस दिशाहीन संगीत के जिम्मेदार कौन हैं।