मैं मूलतः संगीत का विद्यार्थी हॅू। अतएव मेरा राजनैतिक व अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं से सीधा कोई सरोकार नहीं है। लेकिन पिछले कुछ सालों में मेरे को जिस एक बात ने गहरा असर किया तो वह है कि अफगानिस्तान जैसी जगह जहॉं पर कठोर धार्मिक शासन था, और संगीत पर ऐसे प्रतिबंध थे जिन्हें सोचकर रोगंटे खड़े हो जाते है। यहॉं पर भी संगीत के सुनने वाले, चाहने वाले कम नहीं हुए। इस एक बात से और इस उदाहरण में जिस विषय पर मैं बोलने जा रहा हॅू वो विषय स्वतः स्पष्ट हो जाता है।
इसके अलावा सड़क पर ढोलक व मंजीरे की ताल पर मदमस्त होकर लोकगीतों का आनंद लेती मजदूरों की टोलियॉं ग्रामीण क्षेत्र के अपने कठोर जीवन में से संगीत के लिए समय निकालते लोग और जितना नजर दौड़ाइये उधर किसी न किसी रूप में संगीत मानव जीवन में बहता नजर आता है। तो आइये बात करते हैं, कि कैसे रक्त की तरह बहने वालें संगीत ने ना केवल मनुष्य मात्र पर बल्कि मूक प्राणियों को भी अपने सांगीतिक मोहपास में बांधे रखा है।
इन उदाहरणों से यह तो स्पष्ट है कि संगीत प्रत्येक जीव के लिए आवश्यक तत्व है। लेकिन हमारे यहां संगीत को धर्म से जुड़ा मानने की दृष्टि से और भी महत्व का विषय हो जाता है। ’’भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:- वेदानां सामवेदोस्मि‘‘। वेदों का कथन है- ’’अगुष्ठमात्रः पुरूषोंतरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निषिष्टः।‘‘
जहॉं तक मानव जीवन में संगीत के महत्व की बात है, तो कहा जा सकता है। वैदिक युग से लेकर अब तक जो संगीत चला आ रहा है। इसके प्रकार अलग-अलग होते रहे हैं। पर मानव जीवन के असर करने वाला शास्त्रीय-संगीत व लोक-संगीत गा रहे सभी तरह के संगीत ने मानव संस्कृति के धरातल को सुसंस्कृत एवं सुसभ्य बनाया है।
संगीत के द्वारा ईश्वर आराधना का मौखिक भाव वैदिक युग से ही भारत द्वारा सम्पूर्ण विश्व में फैला है। कहा जाता है कि आर्य लोंगो का शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा हो कि जिसमें संगीत ने प्रवेश न किया हो। इस युग में धर्म और संगीत दोनों एक हो गये थे। इस काल का कोई भी धार्मिक संस्कार बिना संगीत के पूर्ण नहीं होता था।
हमारे यहॉं चार वेद है, उनमें सामवेद संगीत का प्रमाणिक वेद है। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में प्रचलित संगीत- पद्धतियों की परंपरा “सामवेद” से संबंधित है। भारतीय संगीत प्रणालियां संतप्त मानव को अमृत्व प्रदान करने में सक्षम है। उसका एक प्रमाण देखिये संगीत व साहित्य दोनों के लिए या कहें कि सभी कलाओं के लिए अपने राजपाट का त्याग करने के बाद राजा भर्तृहरि ने अनुभवगम्य बात लिखी- “संगीत साहित्य कला विहीनः”। राजा भर्तृहरि ने एक और बात अपनी पुस्तक वाक्यपदी में नाद को ब्रह्म मानते हुए लिखा है-
अनादि निधनं ब्रहम शब्द त्वायदक्षरम्।
विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः।।
अर्थात – शब्दरूपी ब्रह्म, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।
राजा भर्तृहरि ने जो संगीत, साहित्य व कला कि जो बात उद्घृत की है वो उन्होने वैदिक युग से लेकर वर्मतान तक का आंकलन करके ही लिखा है। उनका कहने का तात्पर्य यह भी है। जितना महत्व संगीत का मानव जीवन में है उतना ही महत्व साहित्य व और कलाओं का भी है। पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा है कि किसी भी देश की सभ्यता व संस्कृति उस देश की धार्मिक, साहित्यिक क काल की स्थिति पर निर्भर करती है। यदि किसी भी क्षेत्र की या किसी भी देश की (संगीत, साहित्य व कला) ये तीनों अवस्थाऐं ठीक नहीं है तो उस देश की स्थिति डांवाडोल ही रहती है। लेकिन संगीत तो प्रत्येक मानव मन में रचा बसा है। किंतु भारतीय संगीत अन्य देशों की भागमभाग से सर्वथा अलग है। भारतीय संगीत चाहे शास्त्रीय हो या लोक हो अर्थूपर्ण व मानसिक सुकुन देता है। इसीलिए हमार देश के संगीत को विश्व मानता है।
संगीत का महत्व मानव जीवन में यदि नहीं होता तो विश्व प्रसिद्ध वायलिन वादक यहुदि मेनुहिन यह नहीं कहता कि भारतीय संगीत में एक प्रकार की चंचलता का अभाव है। उसमें एक शांति है धीमापन है पश्चिमी देशों की संगीत धारा एक तेज रफ्तार से चलने वाले पहिए पर खड़ी है। हमारे यहॉं भारतीय संगीत के साथ-साथ योग में भी रूचि ले रहे है।
इन सब बातों पर ध्यानकेन्द्रित करने पर लगता है कि संगीत का कैसा ही माहौल कही भी रहा होगा पर प्रत्येक देश के प्रत्येक व्यक्ति की धमनियों में संगीत विद्यमान है कहा जाता है हमारे शरीर में जो तरंगे होती है वे दुसरे व्यक्ति से वैसा ही मेल रखती है तो दोनों के विचार एक से होने लगते है। उदाहरणार्थ संगीत का महत्व देखिये- एक विदेशी जब अपना सांगीतिक कोई भी वाद्ययंत्र लेकर यात्रा पर निकलता है तो एक दूसरे देश का संगीत प्रेमी चाहे वो कलाकार हो या संगीत से प्रेम करने वाला है। उनमें इतनी प्रगाढ़ता हो जाती है कि वे दूसरे को अपना अनन्य मानने लगते है। जिसे हम सांगीतिक व सांस्कृतिक मेल कहते है। इस वर्तमान युग में केवल संगीत ही एक ऐसा महत्वपूर्ण साधन है जो एक दूसरे से मानवीय संस्कृति का आदान-प्रदान कर प्रेम व सोहार्द की भावना जाग्रत कर रहा है। यह कोई कम महत्व की बात नहीं है।
हमारे जीवन में यह कहा जाय कि संगीत की बहुत बड़ी भूमिका रही है तो वो यह है कि हमारे देश पर सहस्त्रों वर्र्षाें से विदेशी संस्कृतियां आधिपत्य जमाई रही है। पर हमारे कला साधकों ने संगीत को उस बर्बर युग में भी बचाये रखा। हमारे संगीतज्ञों ने उस समय भी यह ध्यान रखा कि हमारे संगीत को इनमें से किस सभ्यता से लाभ हो सकता है। तो अरबी फारसी संगीत से हमारे संगीत में संगीत में काफी मेल किया और ऊॅंचाईयां दी। इस संगीत की दो धारायें थी पहली पूजा के समय का संगीत हमें आध्यात्म की और ले जाता रहा है। दूसरा लोक संगीत की और ले जाने वाला रहा जो हमें मनोरंजन की औार ले जाकर आल्हादित करने वाला रहा है।
इस समय में कोई भी देश एक दूसरे देश से दूर नहीं हैै। वैज्ञानिक तकनीक ने हमें इतना करीब कर दिया है जिससे लगता है। कि प्रत्येक देश एक दूसरे का पड़ौसी बन गया है। जब कोई व्यक्ति अपने देश से दूसरे देश में जाता है तो अपने संगीत को जब फुर्सत की घड़ियों में सुनता है तो वो अपनेआप अपने क्षेत्र या देश में ही पाता है।
आखिर में यह कहा जाय कि संगीत यदि नहीं होता तो आज भी व पहले भी जो जन – जीवन था सुचारू – रूप से नहीं चलता। संगीत व्यक्ति को सुसंस्कृत व सुसभ्य बनाता है। आने वाली भावी पीढ़ी को हमारी संस्कृति के बारे में ज्ञान देता है। संगीत से हमें आत्मिक संतुष्टि मिलती है जिसका गुणागान पाश्यात्य देश भी करते हैं और आत्मसात भी करना चाहता है। आज यदि कहा जाय कि हमारा भारत नजर आता है तो संगीत के ज़रिये व संगीत विद्यार्थियों में ही नजर आता है। क्योंकि हमारे आचार्यों ने माना कि भौतिक युग में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ कपटपूर्ण व्यवहार करता हुआ या अमानवीय कृत्य करता हुआ नजर आ सकता है, पर जिस व्यक्ति के मानस पटल पर संगीत छाया रहता है वो किसी भी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुचायेगा। क्योंकि ऐसे लोगों में सहृदया व दयालुता बनी रहती है। अतः कह सकते है। कि मानव जीवन में संगीत मानवीय गुणों की अत्यन्त भूमिका निभा रहा हेै।
डॉ. हनुमान सहाय|