यह निर्विवादित सत्य है कि कोई भी मानव नया कुछ भी नहीं कर सकता। भारतीय ऋषियों-मुनियों की गणन क्रिया की ही झूंठन को मनुष्य तोड़-मरोड़ कर परोसता है। आज का व्यक्ति हमारे वेद-शास्त्रों को न तो गुरुओं की सन्निधि में रहकर ज्ञान प्राप्त करता है न हीं तत्व से पढ़ता है। अतः उसके द्वारा किया गया कार्य नया लगने लगता है। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि व्यक्ति कुछ न करे, मेरे कहने का तात्पर्य यह है, कि जो भी कार्य बुद्धि में आये उसे प्रभू कृपा का प्रसाद समझ कर समाज की सेवा करे, अभिमान न करे।
जितनी भी कलात्मक अभिव्यक्तियाँ हुई हैं उनका विकास प्राचीन काल से लेकर अर्वाचीन काल तक होता रहेगा। पुस्तक ’’विषम ताल छंदावली’’ भी रचनाकार की तुच्छ अभिव्यक्ति ही है। कला प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करती है। व्यक्ति तंग बुद्धि का हो या विशाल बुद्धि का, कला सभी को प्रिय लगती है। कला का आनंद लेने की क्षमता का आँकलन या निर्णय कोई अन्य व्यक्ति यह कहते हुए नहीं कर सकता, कि अमुक स्तर के व्यक्ति को कला का आनंद लेना नहीं आता। कारण; कि उसके आनंद का स्तर अपने तरीके का है।
लेखक का मत है कि किसी विद्या के अध्ययन व साधना का प्रतिफल तभी सार्थक है जब उसकी बुद्धि का सात्विक ज्ञान-वर्धन हो और उसके किये गये कार्य से मानव-समाज का उत्थान हो। पुस्तक ’’विषम ताल छंदावली’’ में यह विशेष रूप से ध्यान रखा गया है, कि अधिकतर रचनाएँ ज्ञानात्मकता के साथ-साथ आध्यात्मिक भी हैं जो पाठकों को, संगीतज्ञों को व अन्य लोगों को भी संगीत व शब्द का आनंद देते हुए ईश्वरोन्मुख बना सके। यह विद्वत्ता का प्रदर्शन नहीं है। इस तरह के कार्य पूर्व में तो अधिक उच्च स्तर के हुआ करते थे। पहले जो हो चुका होता है वही कार्य किसी को श्रेय दिलाने हेतु व्यक्ति के मस्तिष्क में आता है। ’’विषम ताल छंदावली’’ ऐसा ही कार्य है।
अनेक बुद्धिसंपन्न कलाकारों ने अपनी रचनाओं में स्वरों की क्लिष्टता के साथ ही तालों की जटिलता के भी प्रयोग किये हैं, उनके प्रमाण प्राचीन शास्त्र ग्रंथों में उपलब्ध हैं। नाट्यशास्त्र ’आदिभरत’, ’दत्तिलम्’, ’भरतार्णव’, ’संगीत-रत्नाकर’, ’ताल-समुद्र’ एवं अन्य कई अप्राप्य तथा अपूर्ण दक्षिण-भारतीय ग्रंथों में इसके प्रमाण उपलब्ध हैं। कला की असाधारण अभिव्यक्ति बौद्धिक आधारों पर संभव होती है। प्राचीन कलाकारों की प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप भारतीय उच्चांग संगीत में उन रचनाओं का भी निर्माण हुआ है, जिन्हें अधिक मात्रासंपन्न तालों में गाया जा सके। ऐसी रचनाएँ विद्वानों के ज्ञान की कसौटी समझी गई हैं, और जिस प्रकार साहित्य की रीतिकाल परम्परा में रस, छंद एवं अलंकारों का आधिक्य हुआ है, उसी प्रकार संगीत में भी स्वरात्मक व तालात्मक जटिलता के प्रयोग हुए हैं। जैसे – )ए 1ध्3ए (ए 1ध्6ए 1ध्8, सदृश मात्रिक कल्पनाएँ संगीत-रचनाओं में आज भी संभव है, किंतु प्राचीन 64, 1/128, 1/256 आदि घर्षण-अणुघर्षण सदृश मात्रिक प्रयोग मानवीय संगीत की रसात्मकता हेतु औचित्य की सीमा से परे है। अधिकांश प्राचीन तालों के प्रचार की समाप्ति का प्रमुख कारण उनकी वर्तमान संगीत की अव्यवहारिकता है। 2( मात्राओं का प्राचीन निःसारुक ताल, 1 ( का नवक्रीड़ ताल, 5 ( का मल्ल ताल, (3 = का तृतीय ताल, 9 =) का लक्ष्मीश ताल (’भरतार्णव’) तालात्मक प्रयोगों के प्राचीन उदाहरण हैं, जिनका वर्तमान संगीत में पूर्ण त्याग किया जा चुका है। (निबंध संगीत, पृ. 104)
विलुप्त होती इन विषम संख्याओं को रचनाकार ने अपनी बुद्धि अनुसार पुनः प्रकाश में लाने का एक तुच्छ प्रयास किया है। ताकि भावी पीढ़ी के संगीत विद्यार्थियों व लय का आनंद लेने वाले सभी बुद्धिजीवियों के मानस-पटल पर यह अंकित रहे, कि संगीत जितना नादात्मक, रसात्मक व लयात्मक है उतना ही काल की गणना के समय चक्र में कालात्मक भी है। जो विषम होते हुए भी सम है।
प्रस्तुत पुस्तक में इक्कीस (21) रचनाओं को रागबद्ध एवं लिपिबद्ध किया गया है। जिनमें पाँच (5) रचनाओं को सवाई (5 (ए 8 ( ए 10 (ए 11 (ए 12 () मात्रा में बाँधा गया है। छैः (6) रचनाओं को डेढ़ी (5 ) ए 7 )ए 11 )ए 12 )) मात्रा में बांधा गया है। पाँच (5) रचनाओं को पौने (5 =ए 7 =ए 8 =ए 10 =ए 11 =) मात्रा में बाँधा गया है। एक रचना नौ (9) मात्रा में, एक रचना ग्यारह (11) मात्रा में, एक रचना तेरह (13) मात्रा में, एक रचना पन्द्रह (15) मात्रा में व एक रचना उन्नीस (19) मात्रा में बाँधी गयी है।
नृत्यं वाद्यानुगतं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवृत्ति च।
अतो गीतं प्रधानत्वादत्राऽऽदाव भिधीयते।। (संगीत रत्नाकर)
अर्थात् – गायन के अधीन वादन और वादन के अधीन नर्तन है, अतः इन तीनों कलाओं में गायन को ही प्रधानता दी गयी है।