जहाँ तक जयपुर के सांगीतिक परिवेश को समझने की बात है, तो सबसे पहले हमें संगीत के महत्व को समझना होगा। जो वैदिक व लोक रीति से चला आ रहा है। यदि कहा जाये कि भारत में उपरोक्त दोनों संगीत की दोनों की विधाओं में आमूलचूल परिवर्तन होते रहें है, जो कि प्रकृति का नियम हैं। इसका असर जयपुर राज्य पर भी पड़ना ही था। संगीत को नाद ब्रह्म की उपाधि से विभूषित किया गया है। क्योंकि भारत के सभी ऋषियों, संतो , महर्षियों एवं ज्ञानी ध्यानी आदि ने सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति नाद से ही मानी है। ब्रह्माण्ड की हरेक वस्तु में नाद व्याप्त है। राजा भर्तृहरी ने अपनी पुस्तक वाक्यपदि में नाद को ही ब्रह्म माना है- वे कहते है:-
अनादि निधनं ब्रहम शब्द त्वायदक्षरम्।
विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः।।
अर्थात – शब्द रूति ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से यह जगत् भासित होता है।
अध्यात्मवादियों के मतानुसार, जिस प्रकार ब्रह्म से परे सृष्टि की कल्पना असंभव है, इसी प्रकार प्रकृति और चराचर जगत के प्रत्येक तत्व एवं वस्तु के आंतरिक अवयवों मेें संगीत की सुक्ष्मातिसुक्ष्म अक्षुण्य और अखंड धारा सदियों से वर्ममान तक रहेगी। संपूर्ण वायुमण्डल ही संगीत की स्वर लहरियों से अदृष्टतः अव्यक्त रूप से तरंगित है।
जयपुर को बसाने वाले सवाई जयसिंह जी जितने राजनीतिज्ञ, कूटनीटिज्ञ थे उतने ही सम्पूर्ण ज्ञानवान हरेक विद्या में रहे है। चाहे वो ज्योतिष हो, वास्तुकला हो, काव्यकला हो, चित्रकला हो। इसी प्रकार आपने संगीत की नादात्मक गुण को भी आत्मसात किया, और सामवेद भगवान की सेवा मानते हुए इसे खूब संरक्षण भी दिया। आपने जयपुर की नींव सन् 1727-28 में लगाई तब इन सभी विद्याओं को जाननें वाले पंडितो, वास्तुकारों, चित्रकारों, अभियंताओं, ज्योतिषाचार्यों व साहित्य संगीत के विद्वानों को ससम्मान अपने राज्य में रखकर गर्व महसूस किया।
जहाँ तक वैदिक संगीत व लोक-संगीत का प्रश्न है तो हम यह सकते है कि जयपुर में पहले मीणाओं का राज था, किन्तु संगीत की दशा में कोई खास सुधार नहीं था। कारण की मीणा राजाओं को वैदिक ज्ञान कम ही था भाषा सौष्ठव भी अधिक अच्छा नहीं था। इसलिए संगीत का आनंद भरपूर रहा। जब राजपूत नरेशों ने यहॉं अपना आधिपत्य जमाया तो वैदिक संगीत की स्वर-लहरियॉं बिखरने लगी। संगीत की दशा में सुधार हुआ।
कालांतर में ऐसा समय आया कि इनके हाथों से भी राज्य निकल गया, और गौरों के हाथ में भारत की बागडोर चली गयी तो जयपुर भी कहां बचने वाला था। धीरे-धीरे संगीत की स्वर-लकरियॉं आम व खास में नहीं रही। अपनी-अपनी हवेलियों में ही सिमटकर रह गई। शायद इसी को संगीतज्ञों ने हवेली संगीत कह दिया होगा। जो समय पाकर के हवेली – संगीत की परिपाटी में आता है। कारण कि ब्रिटिश- सरका भारतीय संगीत को जंगलियों का या मूर्खो का संगीत कहती थी। अतः लोग घरों में संगीत का आंनद लेते थे। जहां तक लेखक का मानना है वो यह है कि वे विदेशी (गौरे) इस बात को मान चुके थे। कि भारत पर राज करना है तो लोभी प्रवृति व चाटुकर लोगों के अलावा यहां के सारगर्भित साहित्य, वेद पुराण, उपनिषद् व मन को शांति देने वाले संगीत आदि को ऐन-केन-प्रकारेण बंद करवा दिया जावे, अन्यथा हम इन विधाओं के रहतें हुए अधिक दिनों तक भारतीयों पर अपना आधिपत्य नहीं जमा सकते। वे इस कार्य में सफल भी हुए। भला को महात्मागांधी व उन जैसे सभी विद्वानों का जिन्होने साथ मिलकर भारत के प्रत्येक बच्चे से लेकर बुढ़ों तक में देश आजाद कराने की हूँकार भरी। जिनमें देश भक्ति की गीत सस्वर गा-गाकर लोगों में देश प्रेम का जज्बा पैदा किया। जब तक भारतीय शब्द व स्वर दबा रहता है तब तक तो कोई भी इन पर राज कर सकता है, किंतु इन दोनों महाशक्तियों के पुर्नजागरण पर कोई भी विदेश ताकत टिक नहीं सकती। ढा़णी-ढ़ाणी, गाँव-गाँव, तहसील-तहसील शहर दर शहर ओजस्वी कविताऐं, देश भक्ति के गीत स-स्वर गाये जाने लगे तो देश आजाद हुआ और जयपुर के सभी वर्गो ने इस आजादी के यज्ञ में हिस्सा लिया।
देश आजाद होने के तत्पश्चात् जयपुर को राजस्थान की राजधानी बनाया गया। आदरणीय सरदार बल्लभ भाई पटेल ने राजस्थान का एकीकरण कर एक अनोखा कार्य किया था व सभी राजे-महाराजे जो थे उन सब को संतुष्ट करके की जयपुर को राजधानी का दर्जा दिया गया था। आजादी के पूर्व जयपुर में गुणीजन खाना चलता था जिसमें शहर के नामचीन कलाकार नियुक्त थेे। जिनका सम्पूर्ण व्यय भार गुणीजन खाने से ही चलता था। आजादी के बाद यह गुणीजन बंद कर दिया गया। अब कला साधकों के सामने जीवन निर्वाह कैसे किया जाये कि समस्या पैदा हो गई। उस समय यहां पर गोस्वामी ब्रह्मानंद जी के अथक प्रयास से राजस्थान के राज्यपाल डॉ. सम्पूर्णानंद ने जयपुर ने सन् 1950 में संगीत संस्थान की नीवं रखवाई। इससे लगभग गुणी कलाकारों को जीवन यापन का सहारा हो गया व भारतीय संगीत भी बचा रहा। ब्रहमांनंद जी के रहते हुए संगीत संस्थान ने अनेक कलाकार राज्य को दिये जिन्होंने भारतवर्ष में ही नहीं पूरे विश्व में संगीत की ध्वजा फहराई। इनके बाद भी जब तक संगीत का प्रबंधन संगीत वालों के ही हाथ में रहा तब तक तो यहाँ का वातावरण भी व शहर का संगीतिक वातावरण भी तादात्मय लिए हुए था। कारण की यहॉं के सभी कलाकार साधनारत थे नौकर नहीं समझते थे इसे अपना कर्म व धर्म जीवन से जुड़ा ही मानते थे।
साधनारत कलाकार व साधक के लिए कहा है – जीवन में संयम का प्रादुर्भाव कैसे हो इसी का उत्तर है साधना। साधना द्वारा स्वयं का विकास संभव है। साधना सरल नहीं है। साधना को तप भी कहते है। इच्छाओं का त्याग एवं इच्छाओं की उत्पत्ति साधना द्वारा ही संभव है। साधना से मन व इन्द्रियों का द्वन्द समाप्त हो जाता है। यही साधना है। कहने का तात्पर्य है कि जयपरु में साध्नारत कलाकार ही थे जिन्होेने संगीत का एक आदर्श घराना स्थापित किया था। अब इस इस तरह के कलाकार धीरे-2 न के बराबर रह गये है।
संगीत संस्थान में ऐसा वातारण केवल तब तक ही रहा जब तक चाटुकार लोगों ने सरकार को भ्रमित नहीं किया। कालांतर में सरकारी दखल ज्यादा होने लगी तो संगीत की दखल कम होती गयी। धीरे-धीरे संगीत में दो गुट बनते गये पहला गुुरू लोगों से सीखा हुआ वर्ग दूसरा शिक्षक से कालांश द्वारा सीखा हुआ वर्ग। दोनों में फर्क यह है कि एक वर्ग अपनी संगीत साधना में रात-दिन लगा रहकर अपना व अपने देश का नाम रोशन करता है दूसरा वर्ग अपने अधिकारी की चाटुकारिता करता है। यदि संगीत की भाषा में कहा जाये तो एक श्रेणी कूड़ो की दूसरी श्रेणी सुप्पड़ों की। यदि इस अंधकार पूर्ण संगीतिक परिवेश में सरकार व समाज अधिक समय बर्बाद कर देगा तो आने वाले समय में संगीत व साधक दुर्दशा के जिम्मेदार दोेनों (समाज/सरकार) को रह जायेगाीं।
कुछ कलाकार ऐसे रहे जिन्होनें गुणीजन खाना बंद होने के बाद कहीं नौकरी ही नहीं करी। कारण की राजघराणें में जो प्रतिष्ठित वर्ग के लोग थे उन्होनें इन कला साधकों का समाज में वही सम्मान करवाया जो राजघरानों में हुआ करता था। जिस प्रकार आजादी के बाद संगीत बढ़ावा स्कूल, महाविद्यालय व विश्वविद्यालयों में सरकार द्वारा किया गया वैसे ही आजादी के पहले व गुणीजन खाना बंद होन जाने के पश्चात भी कुछ कला रसिकों ने सेठ-साहुकारों ने मंदिरों ने व संतो ने बनाये रखा वो आज भी जीवंतता लिए हुए है। उन सब का यहॉं उल्लेख करना चाहूँगा- विजयलाल, भौरीलाल सर्राफ बसंत पंचमी उत्सव, प्रकाश जी सुराणा अब श्रुतिमण्डल द्वारा अनेक सामाजिक प्रतिष्ठान जिनमें स्वर व संगीत रचाा बसा था, यंत्रेश्वर मंदिर एम.आई.रोड़ जो गुलाब सिंह धीरावत (चायवाले) जन्म अष्टमी व 7 फरवरी हरफूल जी पारीक गणगौरी बाजार, सभी वैष्णव मंदिरों में जिनमें जयपुर के आराश्य देव गोविंद देव जू, प्रथम पूज्य नहर के गणेश जी के महंत जी, रामकुटी बनीपार्क, बंगाली बाबा दिल्ली रोड़ गलता जी कनक बिहारी जी के व अनेक संगीत के ठिकाणे हुए है जिनकी वजह से जयपुर का व जयपुर शैली का सांगीतिक वातावरण बच पाया है। इन सभी ने साधनारत कलाकारों का पूरा-पूरा ध्यान रखा। धीरे-धीरे इन में भी एक आध जगहों कला के दुश्मनों ने अपनी चाटुकारिता से जगह बनाली और संगीत के शाश्वत आनंद को धामाणी जी जैसे लोग लिया करते थे वह बात ही खत्म सी हो गयी। ऐसे ही विजय लाल जी भौंरी लाल जी सरार्फ यहां नामचीन कलाकार आते थे व बसंत के सांगीतिक महोत्सव को पूर्ण यौवन तक ले जाते थे। उस समारोह को सुनने के लिए कई दिनों पूर्व से ही इन्तजार करने लगते थे वे रसिक लोग आज निराश हैं ।
सन् 1950 से लेकर अब तक जो जयपुर का सांगीतिक परिवेश रहा उसमें कई उतार-चढ़ाव आये है, पर यह कला सर्वथा गलत होगा कि केवल संगीत में ही बदलाव आया है। सभी में बदलाव आया और समाज व सरकार हमारे वास्ततिक मुद्दे से ही भटकते गये।
जयपुर का दुर्भाग्य यह रहा है कि आज के परिवेश में कला साधक कम व कला बाधक और कला व्यवसायी अधिक पनप रहे है। सरकार द्वारा जो नियुक्ति प्रणाली अपनाई गयी है वह युक्ति-युक्त नहीं है। इसमें कलाकारों में भारी वैमनस्यता भर गई है जिसकी संगीत कभी इजाजत नहीं देता। आज कला पढ़ने की ज्यादा व गुनने की कम हो गयी है। जबकि आज के कलाकार को पढ़ना और गुनना दोनों ही अत्यवश्यक है। लेखक का मत है कि सरकार उन दोनों तरह (कलाकार/शास्त्रकार) के लोगों को रखे जिससे आने वाली भावी पीढ़ी को प्रायोगात्मक व सैद्धांतिक पक्ष में मजबूती हासिल हो सके। ताकि हमारी शास्त्रीय-संगीत की शैली व संगीत के शास्त्र बचे रहे व सीखने वाले विद्यार्थियों में ज्ञानार्जन की प्रवृति बढ़े।
आखिर में कहना चाहूँगा जिस तरह से गाय सिंह के सामने आती है तो अपने आप को मृत प्रायः मानती है। वही हाल संगीत के साधकों का हो रहा है। कलाहीन मगरमच्छों ने साधना रूपी हाथियों को परास्त करने में कोई खसर नहीं उठा रखी है। जिससे सच्चा संगीत मृत प्रायः होता नजर आ रहा है। जिस तरह विदेशी लोगों को स्वदेशी लबके भ्रमित करते है। इसी प्रकार संगीत को स्वदेशी लबके ही भ्रमित कर रहे है। लेकिन कुछ समय पहले लबकों को सरकार ने दण्डित कर विदेशियों को सही राह दिखाई है। उसी प्रकार हमारे संगीत रूपी लबकों को भी दण्डित करके सही राह में लाया जाये। मैं पूर्ण विश्वास से कह सकता हॅूॅ कि संगीत व शास्त्र के बिगड़तें हालत पर सभ्य समाज व सरकार ध्यान देगी तो अवश्य सुधार होगा।