खयाल भाषा से निकला हुआ शब्द है जिसका मतलब होता है विचार। और साहित्य हिन्दी की उस भाषा का नाम है जिसको ज्ञानी, गुणी, विद्वान, कवि और गायक आदि बहुत ही शिष्ट भाषा में लिखते हैं जो कि मात्राओं की दृष्टि से भी खरी उतरती है एवं किसी को संदेश देने में भी समाजोपयोगी होती है। वैसे तो यह कह सकते हैं कि खयाल और साहित्य दोनों ही एक दूसरे के पूरक है। यहॉं खयाल का सीधा सा अर्थ है (संगीत) गायन व साहित्य का साधारण अर्थ है शब्द। अर्थात संगीत और साहित्य दोनों का जोड़ होना ही साहित्य-संगीत कहलाता है। हमारा भारतीय संगीत सामवेद की ऋचाओं का गायन होने के कारण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने कहा है – ’’वेदानां सामवेदोष्स्मि।‘‘ अतः मैं वेदों में स्वयं सामवेद ही हूँ । धीरे-2 वैदिक युग से पौराणिक युग में संगीत की स्थिति कुछ बदली और समाज में शास्त्रीय संगीत के प्रति प्रेम कम हुआ। जैन साहित्य में संगीत, बौद्धकाल में संगीत के समय में फिर कुछ बदलाव आया और संगीत को राजाओं के जैसा ही सम्मान मिलने लगा जिससे समाज में संगीत उच्च स्थान पर था। भगवान बुद्ध तो स्वयं उत्तम संगीतज्ञ थे। इसकाल के संगीत में जीवन की व्यापकता का समावेश अधिक हो गया था। अब वही संगीतज्ञ सफल समझा जाता था जो कि अपने प्रदर्शन से मानव को समस्त विकारों से ऊपर उठा सके। बुद्ध सम्पूर्ण सिद्धांतो को गीतों की लड़ियों में पिरो दिया गया था। सुंदर ढंग से गायन करके गॉंव-गॉंव और नगर-नगर की सुप्त जनता को जागरण के भव्य पथ पर लाया गया। शास्त्रीय-संगीत अपने पूर्ण यौवन पर था। संगीत पर जो वासना की धुन्ध छाई हुई थी, वह विनिष्ट हो गयी। 1 जब 13वीं शताब्दी में प्रथम मुगल शासक अलाउद्दीन संगीत प्रेमी बादशाह थें, अतः उन्होंने संगीत प्रचार एवं प्रसार में बड़ा योगदान दिया।2 (भा.सं.का.इ. पृ.सं. 73) कलांतर में राजपूत काल में संगीत फिर से संकीर्ण विचारों वाले कालाकरों में पलने लगा। उसका कारण था स्वयं राजाओं का ही आपस में बैर भाव और वही असर कलाकारों पर व संगीत पर भी पड़ा। इसी समय घरानों का प्रारंभ हुआ था। यह समय लगभग 8वीं से 12वीं शताब्दी का रहा है। एवं मुगल 13वी से 18वीं शताब्दी तक रहा है। इसी समय में अनेक संत संगीतज्ञ भी हुए थे जिन्होंने भारतीय संगीत व साहित्य के विकास में बहुत योगदान दिया। जैस- रहीम रसखान, दयिा साहब, निजामुद्दीन औलिया, मीरां, सूर, तुलसी, कबीर और दादू दयाल आदि।
सन् – 1850 से 1947 तक अंग्रेजों का राज्य होने से कारण संगीत की और बिल्कुल की ध्यान नहीं दिया गया। जिससे यह कला निम्न श्रेणी के व्यवसायी लोगों में जा पहुॅंची। जिसकी वजह से संगीत की व साहित्य की धज्जियां उड़ने लगी। और सभ्य समाज शास्त्रीय संगीत की उपेक्षा करने लगा। उस समय में हमारी भारतीय शास्त्रीय संगीत की विधा को बचाने में प्रातःस्मरणीय विष्णुनारायण जी भालखण्डे ने बहुत परेशानियॉं झेली। और मान-सम्मान की परवाह न करते हुए अपना घरबार त्याग कर उन उस्तादों के घरों में पड़े रहते थे व कभी-कभी दुत्कार-फटकार खाकर भी खाते थे। अब यदि यह कहा जाये कि स्व. भातखण्डे जी उस समय यह बीड़ा नहीं उठाते तोे संगीत लुप्तप्रायः हो जाता और बचता केवल शौर। शायद इसे पूरे वृतांत से यह बात स्पष्ट हो गयी कि जिस देश की स्वतंत्रता ही नहीं है उस देश के अपने सांस्कृतिक या साहित्यिक या करें कि सामाजिक या धार्मिक नियम क्या रहते होंगे। उस देश पर तो उन लोगों की रीतियां-नीतियां चलती है जिन लोगों का आधिपत्य होता है। अतः हमारे जो ग्रंथ थे सभी संस्कृत में थे सभी से हम दूर हो गये और वें ग्रंथ विदेशी लोग ले जाकर सभ्य हो गये और उन विदेशियों की शिक्षा पाकर हम असभय एवं दयाहीन हो गये। इस कुसंस्कृति का प्रभाव अंग्रेजों के शासनकाल में अधिक पड़ा। इन सब कारणों से हमारा संगीत तो प्रभावित हुआ ही पर संगीत के द्वारा जिस साहित्य को परोसा जाता है वह भी कहीं का नहीं रहा। अतएव शास्त्रीय संगीत की खयाल शैली में साहित्य न रहकर बेतुकी शब्द शैली ने अपना घर जमा लिया। यदि कहें कि खयालों में राग तो यथावत रहता हैं पर उसमें निरक्षर कलाकारों की वजह से एवं राजा नवाबों की चाटुकारिता की वजह से साहित्य का अभाव रहता है। उस कारण बहुजन समाज यह नहीं समझ पाता है कि गायक क्या कहना चाहता है। अब धीरे-2 फिर से इस बात की और ध्यान जाने लगा है। इस वर्तमान समय प्रातः स्मरणीय रामाश्रय झा ’’रामरंग‘‘ ने संगीत और साहित्य का बेजोड़ कार्य किया है।
भारतीय शास्त्रों की जहॉं तक बात है वो है कि संसार में जीव की चौरासी लाख योनियॉं मानी गई हैं उसमें मनुष्य देह सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। क्योंकि अच्छे-बुरे का, धर्म का अधर्म का, पाप का पुन्य का सभी का ज्ञान केवल इसी देह में होता है। अतः भाग्य से हम मनुष्य देह में है तो हमें इस पुनीत कार्य को कर देश को पुनः संगीत व साहित्य की स्थित को चरम तक पहुॅंचाना है। रामचरित मानस में तुलसी बाबा ने लिखा है- ’’बड़े भाग मानुष तनु पावा।‘‘ सुर दुर्लभ है अतः हमें सुरीला संगीत और सारगर्भित साहित्य में सदैव रमाहुआ है। जिससे कि हम स्वयं को और भावी पीढ़ी को एवंम, वर्तमान समाज को सुसंस्कृत और सुसभ्य बनाने मेें मदद कर सकेें। अगर आप हम खयाल गाना शुरू करें और सभागार में बैठे ऐसे श्रोता से पूछे कि इस संगीत में शब्द क्या है तो उस खयाल को सुनकर आमजन केवल मुखड़ा ही बता पायेगा बीच में और अन्त में क्या कहा गया वह नहीं जानता। इसका साीधा सा अर्थ है कि हम उस संगीत से स्वर का आंनद तो ले रहें है। पर आमजन उसके अलावा क्या संदेश या सीख लेकर घर पर जायेगा। शास्त्रीय-संगीत का जन मानस पर इसलिए प्रभाव कम होता जा रहा है। हमारे विद्वानों ने तो यहॉं तक कहा हेै कि स्वर निगुर्ण का स्वरूप है और शब्द सगुण का स्वरूप है। जिन सौभाग्यशाली मनुष्यों ने स्वर और शब्द दोनों को समझ लिया, मानों वे थे बड़भागी लोग निर्गुण निराकार निर्वेशष व सगुण साकार सविशेष का अनायास ही आनंद पर रहे है। या कहेें कि उस सत्त चित्त आंनद के विशाल सागर में अवगाहन कर रहे हैं।
भारत देश धर्म परायण होने के नाते यहॉं का प्रत्येक व्यक्ति प्रभू की सत्त को ही सर्र्वाेपरी मानता है। वह कह बैठता है-’’मेरी बनाई कुछ ना बनेगी बनी है नाथ तुम्हारी बनाई। ऐसी करणी बनी ना कोई जासों राम मिलो सुखदाई। अकर्म करत अमित युग बीते सुकृत की नहीं करा कमाई।।’’ यह साहित्य द्वारा प्रभू या अपने- अपने आराध्य के श्री चरणों में समर्पण का भाव। जब ये साहित्यिक भाषा संगीत के स्वरों में माला की तरह पिरोदी जाती है तो जन मानस में बैठत्ी ही जाती है। इस भजन में तो सरस प्रताप में सरस माधुरी जी का यह संकेत है कि हम किसी को कुछ कहेंगे तो वो सुनेगा अन्यथा आ,ऊ, ई आदि करे ही जावो। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में रहकर सामाजिक कार्य भी है। और इसी जीवन में परमात्मा प्राप्ति का भी साधन करना है। तो वह शब्द रचना जब गायक स्वरों में पिरोकर गाता है। सभी को आंनद आता हैं और समाज को भी संदेश जाता है समाज उसके अनुरूप चलता है। लेखक का भी यही अर्थ है कि हमारे सभी कला साधकों को व साहित्याचार्यों को सदैव सारगर्भित संगीत की व सारगर्भित साहित्य की ही रचना करनी चाहिये। जो बात इस लेख में कही गयी है। (खयाल गायन में साहित्य का अभाव) बहुत सोच समझकर कहीं गयी है।
हमारे देश पर विदेशी आक्रांताओं का आधिपत्य होने के कारण हमारा संगीत व साहित्य अनेकानेक संस्कृतियों से लोहा लेता हुआ बचा तो रहा पर बनता बिगड़ता रहा है। हमारे संगीत साधकों ने समयानूकुल राजाओं की नवाबों या जो भी सम्राट रहा उनकी चाटुकारिता की और उन्हें खुश रखने की पूरी कोशिश की। जिसकी वजह से संगीत व साहित्य अपने मूल उद्देश्य से भटक गया। मैंने पूर्व में निवेदन किया हैै कि भातखंडे जी जैसे युग पुरूष नहीं होते तो संगीत भी लिपिबद्ध किया तो समस्त भारत उसका लाभ पा रहा है। रही बात साहित्य की तो अब के कलाकार उस और ध्यान देगें और सुधार करेंगें। वैसे कुछ बंदीशें ऐसी हैं जिनका कोई मतलब नहीं निकलता जैसे – क्रमिक पुस्तक मालिका भाग-3 पृ. सं. 33 देखेगे तो उस छोटे खयाल का कोई मार्मिक अर्थ नहीं निकलता। यह तो उहारण के तौर पर बताया गया है ऐसें अनेकों खयाल आप हम को मिलेगें उनका कोई अर्थ नहीं निकलता। परम श्रृद्धेय भातखंडे जी ने ने तो इन खयालों को शायद इसलिए लिपिबद्ध किया है कि सांगीतिक धुन अगर हमारे पास रहेगी तो इन स्वरों में हमारे बुद्धिमान भाई-बहिन साहित्यिक रचना बना लेगेे। तो स्वर और साहित्य का पुनः समागम होने से सम्पूर्ण समाज लाभान्वित होगा। स्व. भातखंडे जी ने संगीत सम्पूर्ण भारत में विकसित ही नहीं किया वरन् स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय स्तर पर पाठयक्रम में शामिल करवा कर अनेकानेक रूचिशील भाई-बहिनों को लाभान्वित किया है। किंतु दुख की बात यह हैै कि इस महान व्यक्ति के कार्य को शिक्षक गण पूरा नहीं कर पा रहे है। आप चाहते थे कि जो कमियॉं विद्वानों को नजर आयें वो अब पूरी कर संगीत व साहित्य के ऋण से मुक्त हों। यह बहुत बड़ी विडम्बना है। कि विश्वविद्यालय हों या कॉलेज हों या स्कूल हों संगीत की लिखी स्वरलिपि में तो शिक्षक गण फिर भी फेर बदल कर देतें हैं। पर उस निरर्थक रचना में फेरा बदल नहीं करवा पाते। मुझे लगाि है कि ऐसे शिक्षकों से प्राध्यापकों से प्रातः स्मरणीय भातखंडे जी जहां भी जिस जगह भी होगें दुखी ही होगे। ऐसा इसलिए तो है कि आज की शिक्षा पद्वति विदेशियों के पाठयक्रम में कम ही जोर दिया जाता है। इस वजह से हम लोग व्यवसायोंन्मुखी तो अधिक हो गये पर संस्कारोन्मुखी कम होते गये है।
हमारी भारतीय संस्कृति संस्कृत में प्रतिष्ठित थी व हमारे ग्रंन्थ भी संस्कृत में ही लिखे गये थे, इस संस्कृत भाषा को विदेशियों ने संरक्षण देना बंद कर दिया। हमारे लोगों ने धीरे-2 संस्कृत का त्याग करना शुरू कर दिया। चूंकि संगीतज्ञ संस्कृत जानते ही नहीं थें, अतः शास्त्रों में जो संगीत सुरक्षित था, उसकी विरासत से संगीतज्ञ बिल्कुल वंचित होने लग गये। संस्कृत विद्या के लोप के कारण संस्कृत के प्राचीन संदर्भ -पदों के लिए विभिन्न बोलियों में नये संदर्भ-पद गढ़े जाने लगे। 3 (निबंध-संगीत पृ.सं. 48 ) तभी से हमारा साहित्य स्तर घटता ही चला गया। पूरे संसार में जो घटनायें घटित होती हैं तो उनका सम्बन्ध किसी प्राकृतिक धटनाओं से जुड़ा होता है या किसी युग पुरूष से जुड़ा होता है। जब किसी महान व्यक्ति का गुणगान के द्वारा किया जाता है तो उसके वहीं रहने पर हमारी भावी पीढ़ी सुनती है। तो उन जैसा बनना चाहती है।
अगर यह कहा जाय कि संगीत में साहित्य ठीक नहीं होने के कारण उसे तोड़-मरोड़ कर गाया जाता है। जिसका कोई प्रभाव जनता पर या प्रबुद्ध वर्ग पर भी नहीं होता तो उसे गूंगे का गुड़ ही कहा जायेगा। गूंगा व्यक्ति जिस तरह गुड़ का स्वाद बताने में असमर्थ है वैसे ही साहित्य से विहीन संगीत का भी यही हाल है। कहा जाता है। कि बिना कहे किसी कार्य को करने वाला देवता, कहने से करने वाला मनुष्य एवं कहने पर भी नहीं करने वाल पशु समान होता है। अतः हम देवता तो नहीं हो सकते पर कहने से तो कर ही सकते है। क्योंकि हम मनुष्य का प्रमाण दे सकें। अतएव खयाल गायकी में जो अर्थहीन बंदिशें है उन्हें या तो सुधार कर पेश की जायें या उनकी जगह नई साहित्यिक रचनाऐं बनाई जायें। यह कार्य सभी महान संगीत शास्त्रकारों को, विद्वान साहित्यकारों को एवं उन सभी शिक्षक वृन्द को व संगीत के पेशेवर कलाकारों को करना चाहिए जिससे खयाल व साहित्य की गरिमा बनी रहे। असुंदर, निबोर्ध व निरर्थक शब्दज्ञान से बचे रहना अत्यावश्यक हो गया है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो खयाल गायकी व साहित्य दोनों का ही संतकाल समीप होगा। जिस संगीत को हम ईश्वरोपासना का साधना मानते हैं व जिन शब्दों से प्रभू का आवाहन करते हैं वे दोनों ही बातें केवल किताओं में ही छपी रह जायेगी। इस बात को कोई मानेगा नहीं की ऐसा होता। है वर्तमान में बहुत से लोग कहते ही है कि मेघ गावों और बरसात करवावों उस वक्त सभी संगीत साधक मूक हो जाते है। दूसरा दीपक राग गावों और दीपक जलावो तक भी कलाकार बगलें झांकने लगते है। डिग्रीधारी प्राध्यापकों की तो बात ही छोड़ दीजिये। क्योंकि इस तरह के काम साधक कलाकार ही करने में असमर्थ तो पाठक कलाकार (प्राध्यापक) तो कर ही क्या सकता है। इसलिए आज का व्यक्ति विश्वास ही नहीं करता कि संगीत प्रमाण केवल पुस्तकों में ही मिल पा रहा है कोई करके नहीं बता पा रहा है। तो ऐसा नहीं हो जाये कि संगीत में केवल कलाबाजी ही रह जाये भाव समाप्त हो जाय और साहित्य मे केवल बेतुके छंद ही बचे समाज को या सम्पूर्ण मानव समाज को कोई संदेश ही नहीं पाये जिन्हें हम समाचारों की श्रेणी में रख सकते है वो ही बचे। यदि ऐसा हुआ तो इसके उत्तरदायी आप और हम होगेे न की हमारी आने वाली पीढ़िया। यह हमारा सौभाग्य है कि भारत ने स्वतंत्रता के बाद सभी क्षेत्रों में तरक्की की है। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य भी है कि पुराने चाटुकारों की शिष्य प्रणाली ने हमारे सत्तासीन राजनेताओं को भ्रमित किये रखा जिससे आज हमारे संगीत व साहित्य की दुर्दशा हो रही है। जिस देश के संगीत को विदेशी लोग शिर का ताज बनाये रखते है। उसी संगीत को अधकचरे कलाकारों ने व चंद मौका परस्त चाटुकारों ने अर्स से फर्श पर टिका दिया है। धन्यवाद तो देश के उर चंद नेताओं को व धनाढ्य परिवारों को एवं कुछेक अधिकारियों को देना चाहिए जिनकी वजह से संगीत के साधक कलाकारों की इज्जत है क्योंकि वे संीत को सही तरीके से गुरूओं के पास चरणों में बैठ के सीखे हुए होते है। फिर भी हमें इन सभी संगीत के कद्रदानों से सहयोग के होते हुए संगीत साहित्य को बचाये रखना है। अन्यथा यह विद्या ह्वास की निरंतर अग्रसर हो रही है। हमारा परम् कर्तव्य है कि भारतीय संगीत में साहित्य को व संगीत को पुनः स्थापित कर हमें सुसभ्य व सुसंस्कृत भारतीय होने का गर्व महसूस करना है। आने वाली भावी पीढ़ी का भी हमें ऋणी नहीं रहना है। अन्यथा कलांतर में बिगड़ते हुए संगीत व साहित्य के दोषी थे लोग नहीं हम लोग होेगे, और इस बड़ी भारी भूल का ऋण नहीं रहना है। अन्यथा कलांतर में बिगड़ते हुए संगीत व साहित्य के दोषी थे लोग नहीं हम लोग होगे, और इस बड़ी भारी भूल का ऋण हम जम्नजम्नान्तर भी नहीं चुका पायेंगे। अतः हमें साहित्य की और विशेष ध्यान देना चाहिए। दादू संप्रदाय के एक संत सुन्ररदास जी ने कहा है।-
बोलिये जब जब बोलिबे की सुधि होवे, न तो मुख मौन करि चुप होय रहिये।
जोरिये ऊ तब जोरिय हॅु जान परे, तुक छंद अमरथ अनूप जायें ललिये।।
गाईय ऊ तब जब गाईबे को कंठ होय, श्रवण के सुन ही मन मांई गहिये।
तुक भंग छंद भंग अरथ मिले ना कछु सुंदर कहत ऐसी बानी नाहि कहिये।।