1 शिक्षण संस्थाओं में संगीत विषय को जिस मौलिकता व गुणवता के साथ लागू किया गया था , उतनी कारगर नहीं हुई ।
2 शिक्षण संस्थाओं में अधिकांश डिग्रीधारी कलाकार नियुक्ती पाने लगे जिससे संगीत का प्रायोगिक पक्ष कमजोर होता गया ।
3 शिक्षण संस्थाओं में शिक्षक व विद्यार्थी का अधिक सामिप्य ( मित्र भाव या बराबर का भाव ) भाव बढने लगा। जिससे श्रद्धाभाव देखा देखी का होता गया ।
4 शिक्षण संस्थाओं में साधनारूपी कला को व अध्ययन से प्राप्त होने वाले विषयों को समदृष्टि से ही देखते हैं ।
5 संस्थाओं में साधनारत कलाकारों की नियुक्ति न के बराबर होने के कारण विद्यार्थीयों की संख्या में कमी होने लगी है ।
6 शैक्षणिक संस्थाओं में सीखने वाले संगीत विद्यार्थी जन -मानस पर संगीत ( गायन ,वादन ,नृत्य ) का असर छोडने में अधिकतर असफल ही रहते हैं ।
7 सरकारी नीतियों के अनुसार शिक्षण संस्थाओं में संगीत के लिए भी जातिगत व्यवस्था की गई हैं । जबकी वीर की व धर्म की कोई जाति नहीं होती ।
8 शिक्षण संस्थाओं में संगीत ,साहित्य व कला विहीन अधिकारियों को व्यवस्थापक बना दिया जाता है ।
9 शिक्षण संस्थाओं के शिक्षक गण अधिकतर संगीत के स्तरहीन सरकारी आयोजनों में मशगूल रहते हैं या सभाओं में समय बर्बाद होता रहता है ।
10 शिक्षण संस्थाओं में उदण्डी विद्यार्थियों एवं विभागीय कार्यकर्ताओं की वजह से आये दिन नारेबाजी व हडतालादि होती रहती है ।
11 शिक्षण संस्थाओं के गुरूजनों की कृपा से कुछेक चाटुकार विद्यार्थी अधिक अंक लाने में सफल होते हैं । तो प्रतिभावान विद्यार्थी भी संगीत की साधना को छोडकर चाटुकारिता की साधना में लग जाता है ।
12 शिक्षण संस्थाओं के संगीत पाठयक्रम में कोई फेर बदल नहीं हो रहा हैं ,जिस कारण विद्यार्थी आलसी हो जाता है । कुछ परिवर्तन हुए भी हैं तो उन्हें संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता ।
13 शिक्षण संस्थाओं में नैतिक शिक्षा लगभग समाप्त हो गई है जिससे भारतीय संस्कारों का सूर्य अस्त होता जा रहा है ।
निष्कर्ष -इन दोनों प्रणालियों का सिंहावलोकन करते हैं तो पाते हैं ,कि दोनों ही प्रणालियों में परेशानी सीखने वाले को ही हैं । जहॉं तक गुरू -शिष्य परंपरा की बात है ,तो कहेंगे कि अब प्रभू श्री राम श्री कृष्ण का समय नहीं रहा । अब आर्थिक युग आ गया । आज का विद्यार्थी संगीत कला हो या और कोई कला हो धन कमाने की भावना से ही सीखता हैं । उसकी साधना का मुख्य उददेश्य ऐन ,केन ,प्रकारेण धन कमाने का है कुछ हद तक यह बात ठीक भी है संगीत के साधक अर्थाभाव से ग्रसित रहते है । इसलिए साधना के साथ -साथ अर्थ का प्रयोजन भी सिद्ध होता रहे तो अच्छा ही है । अतः गुरूजनों को शिष्य की दशा व समयानुकूल परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सामंजस्य कर लेना चाहिए । बडी कृपा होगी । ऐसा करने से गुरूजनों की संगीत विद्या फूलेगी -फलेगी । माना कि इस तरह से संगीत ऊॅचाइयों को भले ही न छू सकेगा पर जन -मानस पर अंकित अवश्य रहेगा । ऐसा नहीं करने से सम्पूर्ण समाज में स्तरहीन ( कूड ) कलाकारों का वर्चस्व होता जायेगा । कालांतर में शास्त्रीय संगीत की की व मार्मिक साहित्य की अर्थी निकलती नजर आयेगी । कुछ समय बाद अच्छे लोग मूक दर्शक बन देखते रहेगे कर कुछ नहीं सकेंगे । अतः सभी गुरू -जनों को भारतीय संगीत व साहित्य को अपना धर्म व कर्म समझते हुए बचाव करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए । ताकि संगीत का भविष्य उज्जवल रहे । ऐसा नहीं करेंगे तो हमारी भावी -पीढीयां सभी गुरू -जनों को कोसती रहेंगी व बद्दुआ देती रहेंगी । किसी शायर ने कहा है
’’ मैं जानता हूँ असर तुम्हारी जुबा पे है ,
दुआ लगे न लगे बद्दुआ जरूर लगती है । ‘‘
तुलसी दास जी ने रामायण में भी लिखा है कि- ’’अलप लोभ भल कहहू न कोऊ‘‘। अतः सभी गुरूजनों को लोभ त्याग संगीत सेवा में लगना है व आने शिष्यों को भी यही शिक्षा दें कि साधना व भक्ति करों धन अपने आप आयेगा। कहा है ’’निरण मजूरी देत है, क्यों कर राखे राम‘‘। तुलसीदास भी कहते है कि –
हाथी कदेन हल हॉंके सिंह व्योपार न करई।
अजगर करे न काम भूख पंछी नहीं मरई।।
थावर जंगम जीव जड़ तिनके कारज अति सरे।
तुलसीदास विस्वास बिनु मूरख नर पथ-2 मरे।।
उपरोक्त महात्माओं की बात सभी साधकों व साधनारत विद्यार्थियों को दृढ़ता से दिल में जम गई तो संगीत की व देश की सच्ची सेवा होगी। आपके हमारे इस दृढ़ विश्वास से भावी पीढ़िया आध्यात्म से भी तादात्म्य रखेगी।
जहाँ तक शिक्षण संस्थओं के संगीत अध्यापकों/प्राध्यापकों का प्रश्न है तो यह है कि मनमें कोई कटुभाव नहीं रखते हुए अपना कार्य ईमानदारी से करें। संगीत साधकों को ससम्मान संस्थाओं में बुलावें व संगीत विद्यार्थियों को कला का लाभ प्राप्त करावें । सभी विद्यार्थीयों के प्रति समान भाव रखें । ताकि यह संगीत की पवित्राता ज्यों कि त्यों बनी रहे । चन्द संगीत शास्त्रा पढ लेने से वे विद्वान नहीं होते । इस तरह के भाव से अहम् झलकता है , जबकि विद्या विनयशीलता सीखाती है । अपने कार्य में भूख होनी चाहिए । भूखे के लिए कहा है – “भूखस्यसि किमं न करोति पापम्” । कहने का तात्पर्य है सभी शिक्षकों व शिक्षिकाओं को सीखाने की भूख होनी चाहिए यदि इन सभी बातो को सभी संगीत कार्यकर्ता गहनात से मन में बिठालें तो संगीत की व देश की सच्ची सेवा होगी।
सुझाव –
1- शिक्षण संस्थाओं में दोनों प्रकार (कलाकार व शास्त्रकार) के ज्ञाताओं की नियुक्ति होनी चाहिए।
2- संगीत की शिक्षा प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविद्यालयीन स्तर तक आवश्यक रूप से लागू होनी चाहिए । संस्थाऐं सरकारी हों या निजी हों।
3- संगीत कला से साक्षात्कार में संगीत के शास्त्रकार व कलाकार ही हों। अन्य का दखल न हों
4- शिक्षण संस्थाएँ संगीत से अर्थ प्राप्ति का भाव न रखें। बल्कि इस विद्या को कैसे बचाया जाये यह भाव होना चाहिए।
इसे इस तरह मानना चाहिए कि संगीत धर्म से जुड़ा हुआ है। और धर्म पंगु होता है। पंगु का मतलब लंगड़ा। लंगड़े को पकड़कर चलाया जाता है या बैसाखी से चलता है। ऐसे ही संगीत को पंगु समझ के चलाय जाना चाहिए। संगीत से यदि कोई संस्था यह समझे कि इससे आर्थिक लाभ नहीं है अतः हम पाठ्यक्रम में लागू नहीं करेंगे। मैं कहूंगा कि वह संस्था भारतीय हो ही नहीं सकती है।
यह अकाट्य सत्य है कि वर्तमान में जितने भी अमानवीय कृत्य हो रहे है इन सबकों रोकने में व सही दिशा देने में भारतीय शास्त्रीय – संगीत व सभ्य लोक-संगीत इतना कारगार हो सकता है।, जितना सरकारी प्रशासन भी नहीं हो सकता।
अतः सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव करते हुए भारतीय संस्कृति को धर्म को व समाज को बचाये रखें जाने में स्पष्ट नीति अपनाकर हमारी समस्त कलाओं का व समस्त देश का भला करें।
’‘जयहिन्द‘‘