यह विचारणीय है कि भारतीय कलाकारों ने संगीत की आत्मा को कैसे पहचाना। हमारें यहॉं संत महात्माओं द्वारा समाधिस्थ होने पर जो अनहद नाद का आंनद आता हैं, और उनसे पूछने पर यह सुनने को मिला कि जब उस परमात्मा से लौ लग जाती है तब हमारे अन्तरमन में छःराग व (36) छŸाीसों बाजा की अनुगूंज होती रहती है जिसे हम अनहद नाम के नाम से जानते है। इसे अपने आप में समाधिस्थ होने पर ही जाना जा सकता है।
भारत धर्म प्रधान देश है। भारतीय विचारधारा सदैव ही आदर्शरूपी भाव-भूमि पर प्रवाहित होती रही है। तथा उसका एकमात्र प्रयोजन लोक-कल्याण ही रहा है। इसके कण-कण में राम, कृष्ण, बु़द्ध, महावीर की आत्मा समाई हुई है। (सत्य, अहिंसा ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिगृह ) इन पंच महाव्रतों को आत्मसात करने आ रहे है। ’’ इस बर्बर युग में भी पंचशील का नारा देने वाला यही देश है। ऐसी स्थिति में इसका साहित्य व संगीत कैसे विश्वकल्याणकारी होगा। अमेरिका जैसे साधन सम्पन्न देश के निवासियों का भारतीय संगीत और योग की और आकृष्ट होने का यहही एक करण है। अमेरिका जैसे साधन सम्पन्न देश के निवासियों का भारतीय संगीत और योग की और आकृष्ट होने का यही कारण है।। अमेरिका के मानोविद विक्षिप्तावस्था में जीवन जी रहे है। वे लोग आत्मसात शांति की खोज में भटक रहे हैं। किन्तु अमेरिका के उस तनावपूर्ण जीवन से हटकर वे भारतीय संगीत की स्वर गंगा में अवगाहन करते है। तो उन्हें लगता है कि भोग-विलास वाले संगीत वे सुनते आ रहे है। उससे मानसिक शांति व परमात्व तत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। (निबंध संगीत पृ.सं. 305-306)
विश्वप्रसिद्ध वायलिन वादक यहूदि मेनुहिन ने एक भेंटवार्ता में बताया – भारतीय संगीत में एक प्रकार की चंचलता का अभाव हे। उसमें एक शांति है, धीमापन है। पश्चिमी देनों के जीवन की सारी रचना एक तेज रफ्ताार से चलने वाले पहिये पर खड़ी है। भारत के गायकों वादकों और नर्तकों ने संगीत की आत्मा को पहचाना है, जबकि इधर पश्चिम में संगीत मे शरीर को सजाने-सॅंवारने का काम ज्यादार हुआ। यद्यपि पश्चिम में भी संगीत की गहराईयों तक पहुॅंचने का लक्ष्य रहा है। पर उसमें भी ज्यादातर टेकनिक को विकसित करने की तरफ ही यहॉं ध्यान दिया गया है। (नि.सं. पृ सं 306)
प्यारेलाल श्रीमान ने लिखा है कि – भारत में षड्दर्शनों के समान ही संगीत शास्त्र भी ब्रह्म संबंधि चिंतन का विषय रहा है। मानव जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा साक्षात्कार माना गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति का सर्वाेत्तम माध्यम संगीत होने के कारण उसे अध्यात्म के रंग मंें पूरी तरह रंगने का प्रयत्न किया गया है। ’’सामवेद‘‘ के अतिरिक्त’’‘‘, ’’गांधर्व वेद‘‘, ’’‘प्रातिशास्त्र‘‘, ’’‘नारदीय शिक्षा‘‘, ’’छांदोग्य उपनिषद‘‘ आदि ग्रंथ इसके प्रमाण है। ’’नाट्यशस्त्र‘‘, ’’विष्णुधर्माेत्तर-पुराण‘‘ ’’संगीत रत्नाकर‘‘ आदि भी उसी चिंतन-धारा के ग्रंथ है। भरत और शांरगदेव दोनों ही शास्त्रकारों ने ’’सामवेद‘‘ के स्वरों को ही शुद्ध स्वर माना है। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में अधुना संगीत-पद्धतियों की प्रचलित परंपरा ’’सामवेद‘‘ से ही संबंधित है। यही कारण है कि वर्तमान संगीत-प्रणालियॉं संतप्त मानव को शांति प्रदान करने में सक्षम है। (निबंध संगीत पृं. सं. 305)
यह अकाट्य सत्य है कि भारतीय संगीत और संगीत साधकों का लक्ष्य केवल मोक्ष प्राप्ति तथा परमात्मा से संबंध स्थापित करना रहा है।, अतः उन्होंने अपनी संगीत कला को उसी लक्ष्य की और उन्मुख किया। इस बर्बर युग में भी अनेकानेक कला-साधक व आराधक अपने साहित्य व संगीत की मधुर ध्वनियों में केवल एक ही लक्ष्य पर आते हैं। और गा उठते हैं- सुणज्यें-सुणज्यों जी नटवर नागर अरजी दीन की जी‘‘। (भक्त कवि युगल) इसी प्रकार दूसरा आत्म-सर्म्पण का उदाहरण है- ’’‘थॉंका घर की याही रीति अधमउधारणी सा’‘। (भक्त कवि गायक नरसिंगदास मारवाड़ी) आप दोनों भक्त कवि-गायक स्वंतन्त्रता के बाद के हैं पर लक्ष्य वो ही है। (परमात्मा प्राप्ति) भारतीय कलाकारों ने संगीत को कभी साध्य नहीं माना है। उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति के लिए सदैव ही इसे साधन रूप में स्वीकार किया है। कहा है कि संगीत की सच्ची साधना वही है, जिसके फलस्वरूप मानव का मन उस उच्चतर सुक्ष्मनाद का अनुभव करने के योग्य बन सके। योगियो ंने भी शक्तियों को उर्ध्वगामी बनाने में संगीत को सहायक माना है। योगियों की भाषा में संगीत नाद योग है।
भारत में विभिन्न प्रकार के सम्प्रदाय है इन सब के कारण यहॉं विभिन्न धर्मावलम्बी निवास करते हैं। लेकिन यहॉं के सभी धर्मों को मानने वालों ने संगीत के द्वारा गायन करते हुए अपने आराध्य को खुश करने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया है। इस्लाम में एक जगह लिखा है-
दौलत मिली है ईश्क की अब और क्या मिले।
वह चीज मिल गयी है जिससे खुदा मिले।।
भक्ति के लिए कीर्तन सर्वोत्कृष्ट साधन है। कीर्तन को सबसे ज्यादा बंग के चैतन्य महाप्रभू ने प्रचारित किया। आप ईश्वर की आराधना संगीत के द्वारा करते-2 कई बार बेसुध हो जाया करते थे। अष्टछाप के कवि भी कीर्तनकार ही रहे हैं, सूर, तुलसी, मीरा आदि हमारे संत‘महात्मा आदि कीर्तन द्वारा व सरस गायन द्वारा अपने ईष्ट को पाया और आध्यात्मिक विकास की ज्योति पूरे भारत में जलाई। बाबा तुलसी ने रामायण में लिखा है- कलयुग केवल नाम अधारा। सुमिर-सुमिर नर उतरही पारा। अतएव संगीत के सहारे से कीर्तन करते-करते कोटि- कोटि जन संकटों के समुद्र पर गये ।
विश्व इतिहास साक्षी है कि प्राचीन युग में किसी भी देश का चाहे व लौकिक हो या आश्यात्मिक हो भक्ति भाव से ओत-प्रोत था। धर्म ही उसका प्रेरक था। जब संगीत साधक धर्म से जुड़ा रहा तब तक तो उसका प्रयोजन परमात्म तत्व को प्राप्त करना ही रहा है। किंतु मध्यकाल में संगीत धीरे-धीरे धर्म से विलग होता गया और संगीत आत्मा का भोजन न रहकर मनोरंजन का साधन होता गया। किंतु पुनः हमारे संतों ने इस डगमगाती नैया को संभाला और उन निम्न कोटि के संगीत साधकों को भक्ति की और उन्मुख किया। यदि यह का जाये कि इन कला साधकों को भौतिक युग की चकाचौंध ने अपने विश्वास से हिलाया तो अवश्य है, फिर भी उन्हें एक समय में ऐसा अवश्य लगाता है कि हम इस पुनीत कार्य को करते हुए ही ईश्वर प्राप्ति कर सकते है। अतः वे कभी न कभी संगीत को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए अपने अहंकार को भुला बैठते है। आखिर में इस संसार के थपेड़े खाकर कह उठते है।- ’’करी गोपाल की सब होई। जो अपनो पुरूषारथ मानत है अति झूठो सोई‘‘। (सूरदास जी) सोचते है कि हमनें पिछला सुसमय मन की उहापोह में ही व्यर्थ गंवा दिया। सामवेदी कला को मनोरंजन का साधन बनाकर ईश्वर से दूरी बनाली। जब हम संसार के पार के दोनों के नहीं रहे तो हमार पास साथ देने को टूटी चारपाई है उससे पडे़-पड़े अब विचार कर रहे है। कि जिस संगीत से ईश्वर प्राप्ति होती, उसको मैं समझ न पाया और जिंदगी खराब करली। पर इस संगीत का महत्व मेरे समझ में आ गया तो अब मैं को कोटि – कोटि धन्यवाद देता हॅू जिन्होनें संगीत को ईश्वरोपासना के लिए ही गया, और जीवन सार्थक बनाया।
अस आधुनिक युग के संगीत व संगीतकारों के साथ अभी यहीं डगमगाये हुए समयानुकूल क्षण गुजर रहे है। संगीत से आज का संगीतकार अपनी आजीविका तो अच्छी चला रहा है, पर यह निर्णय नहीं कर पा रहा है। कि मै। सही हॅू या गलत। इसी खेंचतान मंें उसी जिंदगी का सफर लगभग पूरा सा होने लगता है। तब उसे किसी आघ्यात्म गुरू के अलावा कोई भी सहारा नहीं दे सकता। वह सोचता है कि मैंने केवल स्वान की तरह पेट भरने के लिए इस संगीत को अपनाया व भावी पीढ़ि को भी यही शिक्षा दी। उसकी इस सोच से अपने आप ही स्पष्ट हो जाता है कि उसे अब इस संगीत के पवित्र कार्य से ईश्वर की सत्ता का भान हो गया। तो वह अपने बाकी बचे सांसो को यह कहता हुआ काटता रहता है- ’’मेरी जुबां पे शाम का जो नाम आ गया। इक लम्हा जिंदगी का मेरे काम आ गया।।‘‘
(जुगल माधुरी शरण, सरस प्रताप)
आखिर में कहता हुआ जाता है, कि हमारे संतों ने, मनिषियों ने, ऋषियों ने जिस संगीत के नाद से ईश्वरोपासना की है और आत्मिक आंनद प्राप्त किया है वही संगीत का नाद हम ग्रहस्थियों के लिए भी परमात्म प्राप्ति का सुलभ साधन है।
उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट होती है कि संगीत के द्वारा परमात्मा से संबंध स्थापित किया जा सकता हैं, बशर्तें कला का प्रयोजन आत्मानुभूति हो। चित्रवृत्तियों का विरोध करके मन को पवित्र बनाने की भी उसमें अपार क्षमता है। संगीत के द्वारा न केवल परमात्मा से संबंध ही स्थापित किया जा सकता है, वरन हमारे आराध्य को प्राप्त भी किया जा सकता है।
’’कल्पसुत्र‘‘ में उल्लेख है कि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के निर्वाण के समय अष्टापद पर्वत पर मंदोदरी ने नृत्य किया और रावण ने वीणा बजाई। बजाते समय एक तार टूट जाने पर उसने अपनी जंघा से अपनी लाल (नस) निकालकर उस तार के स्थान पर कस लिया, किंतु वादन क्रम को वश्रंखल नहीं होने दिया। यह संगीत में चित्रवृत्ति केा एकाग्र करने की क्षमता है। भक्ति की इस तल्लीनता के कारण रावण ने भावी तीर्थंकर चौबीसी में अपना स्थान बना लिया कहा भी हैः-
वीणावादनतत्वज्ञः श्रृतिजातिविशारदः।
तालज्ञश्चायप्रयासेन मोक्षमार्ग निगच्छति।।
अर्थात – वीणा-वादन के तत्व को जाननेवाला श्रुति और जातियों में विशारद ताल का ज्ञाता बिना प्रयास ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। (नि.सं. पृ.सं. 311)
संगीत कला ईश्वराधना में सहायक कब होती है इसको थोड़ा सा स्वरूप है जिससे परमात्मा से संबंध बनाया जा सके। मेरे मत से जितनी भी संगीत शैलियॉं प्रचलित हैं वे इसके अयोग्य है, क्योंकि इनके कला-साधक इसमें कला पक्ष पर ज्यादा जोर देते हैं भाव पक्ष्ज्ञ पर उनका ध्यान जाता ही नहीं। यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि कलाकार जिस अदृश्य शक्ति का गुणगान कर रहा है उस पर विश्वास नहीं कर रहा। कहा जाता है संत में और संगीत के साधक में कोई फर्क नहीं होता। फर्क यदि है तो केवल इतना कि संत सब कुछ त्यागकर ईश्वर प्राप्ति में लग जाता है और संगीत साधक गृहस्थ होने पर भी संगीत के नाद द्वारा उसको प्राप्त कर लेने में अपना सौभाग्य मानता है पर विश्वास हो तब। क्योंकि वर्तमान के संगीत कलाकारों को इस भौतिकवाद ने अपने जाल में ऐसा जकड़ लिया है कि उसे अर्थ से जोड़ दिया धर्म से हटा दिया। किंतु जब उसे यह अहसास होता है कि ये मैंने क्या किया मैं संसार में किसलिये आया था। फिर वो ईश्वर की और आमुख होता है और हमारे प्रभू ऐसे दयालु हैं कि उसके अपना लेते हैं यदि उसका भाव प्रभू में कपट रहित है।’’ गोस्वामी बिंदुजी महाराज’’ ने लिखा है – यही हरि भक्त कहते है। यही सद्गं्रंथ गाते है।
न जाने कौन से गुण पर दयानिधि रीझ जाते है।
कहने का तात्पर्य है यदि आखिरी समय पर भी कोई आत्मा से प्रभू भजे तो ईश्वर दौड़े चले आते हैं । अदाहरण के लिए हाथी ने पुकारा और दौड़ आये। कहने का सार यह है कि ईश्वर के पास अन्तःकरण के भाव होने चाहिये। तभी तो कहा है –
भाव का भूखा हूँ मैं बस भाव ही एक सार है।
भाव से मुझको भजे तो भाव से बेड़ा पार है।।
इस बात को समझते हुए हमें यह ध्यान देता चाहिये कि हमारा भाग्य इस बात को समझते हुए हमें यह ध्यान देना चाहिये कि हमारा भाग्य कितना अच्छा है जो हमें स्वर और ताल का भाव है कमी है तो केवल उसमें विश्वास की और हमें स्वर और ताल का भाव है कमी है तो केवल उसमें विश्वास की और भाव की है लेकिन इस कमी को संगीत अनायास ही पूरी कर देता है। क्योंकि कलासाधक जब साधना करने बैठता है तब कभी न कभी इस ईश्वर सत्ता से तारतम्य तो जुड़ता ही है उस समय केवल उसे अपने आज के सिवा एवं उस संगीत की स्वर लहरियों के सिवा कोई नजर ही नहीं आता यह संगीत का बहुत बड़ा महत्व है। यही हमारे संगीत का व हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य भी है कि हम संगीत की मधुर ध्वनियों से ईश्वर की और चलें महात्मागॉंधी के मतानुसार ’’लाखों‘‘ व्यक्तियों द्वारा सच्चे दिल से एक ताल और लय के साथ गाई जाने वाली संगीतमय राम-धुन की शक्ति सैन्य शक्ति से बिल्कुल अलग और कई गुना बड़ी है।’’ (नि.सं. पृ.सं. 312) इससे यह समझ में आता है कि संगीत के द्वारा आध्यात्म की और सहज ही जाया जा सकता हैं।