सदा सुहागिन भैरवी, अमर राग है माड।
कोमल सुध सुर साधिया, सबै लडावे लाड।।
कुछ ऐसे ही दोहों को संजोकर पंडित हनुमान सहाय जी ने राग माड को साकार किया। आपसे बात चीत करने पर आपने बताया कि कार्यशालायें लगाने की होड ना करके संगीतकार संगीत के स्तर को उन्नत करने की कोशिश करते रहे। संगीत संस्थान खोलने का अर्थ संगीत की बपौती होना नही होता। संस्थाओ एवं संस्थापक जन – मानस पर छाये संगीत के गिरते स्तर को या भ्रम को दूर करने के लिए खोली जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि इस कार्यशाला के जरिए माड जैसी विलुप्त होती विधा को सहेजना था। ना कि किसी को गवैया बनाना। जैसे कि अनेक कलाकारो ने अपने अपने तरीके से केसरिया बालम गाया लेकिन उसे माड माना गया। कोमल रिखब या कोमल गंधार जैसे कोमल तीव्र स्वर लगाते ही केसरिया बालम राजस्थान के गीत मे शामिल हो जाता है।और यदी शुद्ध स्वरों में गाये तो वह राग माड पर आधारित पारंपरिक लोक गीत कहा जायेगा।
माड मांडियो मांडणो, फैल्यो चहुं दिशि ओर।
दिग- दगंत मे हो रह्यो, राग माड को शोर।।
यह दोहा विस्तारित करते हुए उन्होंने कहा कि सर्वप्रथम राग गाया जाता है उसके पश्चात उसे मांडा अर्थात उसे लिखा जाता है और तब वह प्रचारित – प्रसारित होता है।
उसी प्रकार राजस्थान की विशिष्ठ गायन शैली राग माड के रहस्यों को उद्घाटित किया जाएगा। जैसे किसी गलत खबर को फैलने में जादा समय नही लगता वैसे ही किसी सही बात को मनवाने के लिए अधिक से अधिक समय लगाना पड़ता है।
सत् मत छोडे सूरमा,सत् छोड्या पत जाये।
सत् की बांधी लक्ष्मी, फेर मिलेली आये।।
अंत मे पंडित हनुमान सहाय जी ने यह दोहा कहते हुए कहा कि सत्य को कभी त्यागा नही जाता। यदी कोई विद्या, कला, शास्त्र, संगीत अभ्यास मे ना रहे तो उनकी क्षति हो जाती है। परंतु कही ना कही किसी ना किसी रूप में वे फिर से प्रस्फुटित या अंकुरित हो ही जाती है क्योंकि उनमे स्वयं में ही सत्यता होती है। इसीलिए इन्हें किसी प्रमाण की ज़रूरत नही पड़ती। इसलिए जितने भी राजस्थान के स्कूल, कॉलेज, संगीत विद्यालय, विश्व विद्यालय, संगीत संस्थायें आदी है। उनमे सिखाने वाले आदरणीय शिक्षक गुरु आदी राग माड के शास्त्रीय स्वरूप को उजागर करे उसके पश्चात उस पर आधारित पारंपरिक लोक गीतों के बारे मे बताये। यदी सही स्वरूप ध्यान मे हो तो अन्यथा मना कर दे परंतु गलत स्वरूप बताकर राजस्थान के लाजवाब संगीत का स्तर ना गिराया जाये ये करबद्ध निवेदन है।
राजस्थान की मिट्टी की सौंधी महक में रचा बसा है राग माड। यहाँ की जलवायु में, पेड़-पोधौं में, चिड़ियों की चहचहाहट में, हर एक व्यक्ति की हरकत में हिलोरे लेता हुआ श्रृंगार करता है राग माड। नव रसों से भरपूर, साहित्य से ओतप्रोत, संस्कृति का वैभव दिखाता हुआ। राजपूताना के शानदार शानो-शौकत के अकूट खजाने को बिखेरते आने वाले राग माड का अस्तित्व बिखरता नज़र आ रहा है। ऐसी गजब की शैली जो की सिर्फ और सिर्फ राजस्थान की देन है, राजस्थान का गौरव है, सम्भालना होगा राग माड के वर्चस्व को राजस्थान के संगीत को। एक पहल करनी होगी चेतना लानी होगी वास्तविकता के लिए। अधिक से अधिक जुड़े व जोड़े एक नये प्रयास में।
The maad of Rajasthan being a diversified mode, in itself, is a specialty full public mode. Here folk means people or society. If there was no public, then society did not happen. If the society happened and it is doing an unethical act then it was called a wild society or uncultured society. That is why human society should also be policy. Therefore, all the kings and emperors of our Rajasthan, or poets, expressed their sentiments in view of timely circumstances and wrote poems to explain to the society what we call Mandana or writing when it started to be sung with our own emotions. The rituals of social traditions came to be known as maad.