Pandit Hanuman Sahay

गुरू – शिष्य पद्धति एंव संस्थागत शिक्षण पद्धति का तुलनात्मक अध्ययन

भारत देश धर्म प्रधान देश होने के कारण यहॉं हर विद्या के लिए गुरू  बनाया जाता है।  वह चाहे गुरूकुल में विद्यार्जन का  केन्द्र  हो या शिक्षण संस्थाऐ  हों । भारतीय माता -पिता का मानना है कि प्रत्येक बच्चे का रूझान अलग-अलग  होना स्वाभाविक  है । जिसमें वर्तमान  में तो अधिकांश यही  हो रहा है, कि बच्चें अपने  पैतृक कार्य में कम ही प्रवृत  हो रहें हैं। अपवाद स्वरूप भले ही कोई बच्चा अपने पैतृक कार्य को करता हुआ पाया जायेगा अन्यथा कोई भी बच्चा ऐसा नहीं कर रहा है । यह बात जब अभिभावकों के गले उतरी तो कहने भी लगे और माननें भी लगे कि हम तो आपके जन्म दाता अवश्य है, किन्तु विद्यादाता गुरू व आचार्य ही है। गुरू- शिष्य पद्वति का महत्वपूर्ण अंग यदि है तो वो है कि गुरू अपने शिष्य को अपने जैसा ही करके जनकल्याण हेतु भेजता है। भारतीय विद्वानों ने चार प्रकार के गुरू बताये है प्रथम दीपक, द्वितीय पारस, तृतीय भ्रमरी व चौथा चन्दन के समान इनमें श्रेष्ठ गुरू भ्रमरी को व दीपक को बताया क्योंकि भ्रमरी कही से भी एक लट या क्रमी को दीवार पर मिटी से बने हुए एक छेद में रखकर उसके चारों और घूम घूकर उस लट रूपी कीड़े को अपना जैसा बना लेती है और यहीं क्रम उस लटरूपी कीडे से भी चलता रहता हैं। दूसरा दीपक भी श्रेष्ठ गुरू की राह है। जैसै एक दीपक से अनन्त दीपक हम जला सकते है इसी प्रकार सच्चा गरू भी अपने शिष्य को इसी प्रकार की शिक्षा गुरू दक्षिणा में प्रदान करता है कि उनकी सिखाई हुई विद्या उनके शिष्य व शिष्य के भी शिष्य दीपक की तरह प्रकाशित करते रहें।  गुरू की महिमा में संत कबीर लिखते है‘ 

’’गुरू गोविन्द दोऊ खडे़ काके लागू पाय।

बलिहारी गुरूदेव की गोविंद दियो मिलाय।।‘‘

वैसे तो सभी कलाओं में व शास्त्रों में गुरू शिष्य परंमरा ही है। चाहे तो वास्तु, मूर्ति चित्र, काव्य व संगीत सभी क्यों न हों पर इन पांचों ललित कलाओं में भी संगीत कला का क्षेत्र व्यापक है। कारण की संगीत का मूलभूत आधार  नाद है, जो आकाश  का गुण होने से सर्वत्र व्यापक है। अन्य ललित कलाओं के मूलभूत आधार  स्थूल पदार्थ  हैं जो अल्प देश और काल तक सीमित रहते है। साथ ही अन्य ललित कलाओं का प्रभाव  केवल  चेतन  मानव पर पडता हैं, किंतु संगीत कला का प्रभाव चेतन जगत व अचेतन जगत दोंनो  पर पडता है । 

संगीत के साथ एक कठिनाई है तो अन्य कलाओं में नहीं पाई जाती है। जहां अन्य कलाओं में केवल एक ही इकाई द्वारा असीमित, किन्तु सम्पूर्ण अभिव्यक्ति की जा सकती है, वहीं संगीत की एक इकाई से पूर्णाभिव्यक्ति असंभव है। संगीत में गुरू का महत्व इसलिए भी अधिक व श्रेष्ठ है कि प्रत्येक मानव के मन में संगीत की स्वर लहरियां विद्यमान है पर इन स्वर रूपी हृदय तंत्र में जब इनकी प्रगाढ़ता होती जाती है तो मानव मन अच्दे से अच्छा कलाकार भी बनना चाहता है। जब वह अपने रूझान को परिपक्व करने के लिए अच्छे गुरू की तलाश में घूमता है। भारतीय इतिहास को देखने, पढ़ने व सुनने से पता लगता है कि हमारे आदर्श प्रभु मर्यादा पुरूषोतम श्री राम व श्री कृष्ण ने भी गुरू बनाये। अपना सम्पूर्ण जीवन गुरू के आज्ञानुसार ही चर्या करते हुए बिताया। हमारे सभी ऋषि महर्षियों ने कहा है – ’’नादाधीन जगत सर्वमं। कहने का तात्पर्य है कि स्वयं न्यायेश्वर भगवान भ्ीा नाद के अधीन है।‘‘ 

गुरू शिष्य पद्वति में भी अन्य कलाओं से सर्वश्रेष्ठ कला है जो केवल संगीत को ही माना। क्योंकि संगीत कला ही एक ऐसी कला है जो व्यक्ति को तन्मयता प्रदान करती है। इसके उर्घ्वमुखी होने पर मनुष्य ईश्वर की और प्रवृत होता है। यही कारण था कि संगीत को विश्व के सभी धर्मों में विशिष्ट स्थान दिया गया। यह गुरूकृपा का ही सुफल है।  

भारत में वैदिक युग से लेकर पौराणिक का काल तक संगीत में गुरू शिष्य परम्परा विधि -विधान से चलती रही ,जिसमें गुरू व आचार्य अपने शिष्यों को आर्यावृत की मर्यादायें सिखाते थे । 

कालांतर में इस पद्धति में बदलाव आने लगे । गुरू -शिष्य पद्धति तो रही लेकिन उसमें बदलाव काफी आते गये । गुरू लोग की लोभ वृति बढने लगी । संगीत विद्या  जन कल्याण की  भावनाओं से परे होती गई । अब तो स्थिति ऐसी बदली है कि संगीत जैसी कला को सीखने से पहले माता-पिता ये पूछने लगते हैं कि इसमें कमाई कब होने लगेगी । आज का शिष्य भी यही सोचता है कि कमाई  वाला संगीत आना चाहिए । बाबा तुलसी ने पहले ही कलयुग का भाव दरसाया हैं – 

मात -पिता बालकन्हि बोलावहिं ।

उदर भरे सोई धर्म सिखावहिं ।। 

आज सबका ध्येय केवल धन कमाना है ।  किसी विद्या में पारंगत हों या ना हों धन कमाने की पारंगतता को सच्ची कला समझी जाती है । हालांकि  हमारे  भारतीय संत ,ऋषि ,महर्षि ,देव ,संधर्वादि इस पारंगतता को निरामूर्खता ही मानते हैं। संत दादू -दयाल के शिष्य सुन्दरदास  जी  ने लिखा है – 

’’तू कछु और विचारन है नर तेरो विचार धरयो ही रहेगो । 

कोटि उपाय करें धन के हित भाग  लिख्यो उतनोही मिलेगों।‘‘ 

समय ने फिर करवट बदली और जैन, बौद्ध, महाकाव्य काल, मोर्य, अशोक कनिष्क एवं गुप्तकाल तक भी यह विधा चलती रही । 8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक राजपूतों  का राज्य रहा , फिर 13वीं से 17वीं शताब्दी  तक मुगलों का व राजपूतों  दोनों का राज्य रहा । 17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक अंग्रेजों का आधिपत्य रहां

इन सभी संस्कृतियों का असर हमारे मानव जीवन पर अत्यधिक पड़ा। देश स्वतंत्र भले ही हो गया लेकिन विभिन्न संस्कृतियों के बलवती होने के कारण देश की मूल संस्कृति के साथ कुठाराघात  होता रहा । इन संस्कृतियों के दुष्प्रभाव  से भारतीय  संगीत  कला व गुरूजनों की मानसिक दशा भी दयनीय होती गई । हमारे यहॉं ऐसा मानना है, कि -जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन । यही प्रभाव सभी कला -साधकों पर भी पड़ा। यदि कहें कि इन सब कारणों से गुरू -शिष्य परंपरा में भी बदलाव  आया । जैसा कि कला -साधक अपनी कला को बांटना नहीं चाहते थे । केवल  अपने परिवार के बच्चों को ही देना चाहते थे। या उनको दिया जिन्होंने  तन, मन, धन गुरू के ही चरणों में समर्पित कर दिया । ऐसी विकट स्थिति  में प्रातः स्मरणीय  विष्णु नारायण  भातखण्डे व विष्णु दिगम्बर  पलुस्कर  एवं साथ ही सभी  संगीत पुजारी जिन्होंने संगीत शिक्षा देश की सभी स्कूलों  से लेकर  विश्वविद्यालयों तक में ऐच्छिक विषय के रूप में लागू करवाई । इस पुनीत  कार्य के लिए पं. विष्णु नारायण  भातखण्डे  व पं. विष्णु दिगम्बर  पलुस्कर  साथ ही वे संगीत  साधक  व कला रसिक अनंत  साधुवाद के पात्र  हैं जिनके अथक प्रयास  से संगीत  बचा रहा। भारतीय  संगीत मनीषियों  का व संतों  का अकाटय  सिद्धांत  रहा है कि  संसार  नाद के अधीन है । लिखते है – नादाधीन जगत सर्व । यह भी पूर्ण  सत्य है  कि संगीत  व साहित्य  ही भटकते हुए मानव को संस्कारवान व चरित्रवान बना सकता है  अन्य विषय नहीं। 

भारतीय कलाकारों ने इतनी  साधना की है कि जैसे ही कोई  कला -रसिक  पं   भीमसेन का शास्त्रीय  गायन  सुनेगा  तो कहेगा  कि मैं  भी ऐसा कलाकार  होता  । फिर  वो सोचता है कि दुर्भाग्य वश  में नहीं हुआ तो मेरी  औलाद को अच्छा  कलाकार  बनाऊंगा । वर्तमान इस प्रकार के कला साधक है जिनकी वजह से भारतीय  संगीत  की मान -मर्यादा व रूझान बना हुआ है । जैसे पं बिरजू महाराज  ( कथक नृत्य ), पं रविशंकर  सितार वादक, पं जसराज शास्त्रीय  गायक  

. हरि प्रसाद चौरसिया बांसुरी वादक, उस्ताद जाकिर हुसैन तबला वादक आदि । यदि यह कहें कि इन सब कलासाधकों का  व इन  जैसे  अनेकानेक कलाकारों  का जीव  केवल कला के लिए ही  समर्पित  है  तसे कोई गलत नहीं कहा जा रहा । केवल   संगीत  क्षेत्र में  अंधकार  से प्रकाश की और ले जाने वाले हैं तो ऐसे ही गुरूजन  व उस्ताद  हैं  जो शिष्य  को सारगर्भित संगीत  कला का  मार्मिक  ज्ञान प्रदान  करते हैं  ।  कहने का तात्पर्य है कि संगीत   ही एक ऐसी कला है, जिसमेें आज भी गुरू शिष्य परंपरा विद्यमान है। प्रश्न उठता है, कि संगीत मानव जीवन या जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक का साथी है। इसे सीखना क्या? इसका उŸार है कि सभी प्रकार से सुसज्जित नारी घूंघट में इतनी सुंन्दर लगती है कि प्रत्येक व्यक्ति देखना निहारना चाहेगा। जैसे ही उसका घूंघट उठता है उसके नासिका नहीं होती देखकर सभी व्यक्ति विस्मय की दृष्टि से देखने लगते है। इसका अर्थ हुआ कि संगीत प्रत्येक व्यक्ति के रग-रग में रचा-बसा तो है, लेकिन वो मनगढ़्रन्त ही होता है। जैसे सब कुछ होते हुए भी नासिका हीन औरत असुन्दर होती है। ऐसे ही वाणी में मधुरता होते हुए भी मनगढ़न्त संगीत (गायन/वादन/नर्तन) को लक्ष्यहीन ही समझना चाहिए। यदि संगीत कला को सलीके से सीखना है या व्यवसायोेंन्मूखी बनाना है तो गुरू की शरण में आना ही पड़ेगा। आज के परिवेश में भी संगीत साधकों व संगीत के विद्यार्थियों को जो आर्थिक लाभ व सम्मान मिल रहा है उसमें गुरू के साथ-साथ कला रसिकों, कला मर्मज्ञो, गुरूकुलों, शिक्षण संस्थाओं,संगीत की इज्जत करने वाले व्यवसाइयों द्वारा जो ऑडियो, विडियो कैसेट्स द्वारा जनता में प्रचार-प्रसार कर व सरकार के द्वारा भी काफी सहयोग दिया जा रहा है। जिसके कारण कला व कलाकार पुष्पवित पल्लवित हो रहें है। 

शिक्षण संस्थाओं की सांगीतिक स्थिति

जहॉं तक संगीत में शिक्षण संस्थाओं का सवाल है तो यह कहा जा सकता है कि स्वातन्त्रोत्तर सभी क्षेत्रों व सभी कलाओं को जब लागू किया गया तो संगीत को भी जिसमें सागयन, वादन,नृत्य आते हैं को भी शिद्धत के साथ लागू किया गया। और तो और संगीत केवल स्कूलों व विश्वविद्यालयों में ही लागू  नहीं किया गया वरन  रेल विभाग, पोस्टल  विभाग, बैंक विभाग, सैन्य विभाग, दूरभाष विभाग आदि में भी संगीत  की नियुक्तियां  कर संगीत  को ससम्मान आगे  बढाया और  कलाकारों के  जीवन स्तर  को भी  आगे बढाया ।  और तो और भारत के सभी बडे उद्यमियों ने भी अपने यहां संगीत  को स्थान दिया। भारत सरकार  ने  कलाकारों के लिए आकाशवाणी  केन्द्रों  व दूरदर्शन  केन्द्रों  की भी  स्थापना  की । 

इन दोनों प्रकार के केन्द्रों की ( आकाशवाणी /दूरदर्शन )  की स्थापना से देश व राज्य के सभी कलाकारों को अपनी कला के प्रदर्शन के साथ-साथ आर्थिक सहयोग भी  मिल रहा है ।   इन केन्द्रों में अनेक कलाकार सेवारत हैं । यदि यह कहा जाये कि जो कार्य राजा -महाराजा  व नवाब पुराने समय में संगीत के साधकों के लिए करते थे वही कार्य देश आजाद होने के बाद  में केन्द्र व राज्य सरकारों ने किया  । जिसकी वजह से भारतीय संगीत की प्रत्येक विधा जीवंत है ।   

 हमें सरकार व संगीत कला को अथक प्रयासों से चलाने वाले सभी गुरूकुलों का व संस्थाओं व्यापारियों का  जो कि ऑडियो, विडियो व कैसेटस के द्वारा प्रचार -प्रसार में  लगे हुए हैं, का ऋणि रहना होगा ।  अन्यथा विदेशी संस्कृृतियों के कारण हमारा सांगीतिक वातावरण पहले भी दुषित हो गया था , व अब भी पुनः  पाश्चात्य संस्कृती प्रभावी हो रही है । व देश की धार्मिक ,सामाजिक ,राजनैतिक व सांगीतिक गतिविधियों को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोड रखी है । यदि यह कहा जाये कि वर्तमान समय में सरकारी तंत्र व निजी शिक्षण संस्थाओं के सहयोग से भारतीय संस्कृति बची हुई है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं ।  

विषयान्तर्गत दोनों पद्धतियों  के गुणावगुण पर भी एक नजर डालनी चाहिए । 

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